लेखक की कलम से

इम्तिहा-इम्तिहा …

 

मुख़्तसर सी जमीं, मुख़्तसर आसमाँ

उसपे इतना घना, ये धुआँ, ये धुआँ.

 

वो मोहब्बत का सारी उमर यूँ मेरी

सिर्फ़ लेता रहा, इम्तिहा, इम्तिहा

 

अपने दामन में अंगार बांधे था जो

शोख़ नज़रों से था, मेहरबाँ, मेहरबाँ

 

उससे पूछो सफ़र जिस ने तन्हा किये

जिसके पीछे चले, कारवाँ- कारवाँ

 

रंगो-ख़ुशबू से लबरेज़ था जो कभी

वो किधर है मेरा, गुलिस्ताँ- गुलिस्ताँ  ….

 

 

©कृष्ण बक्षी

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