लेखक की कलम से

बेड़ियाँ ….

 

कल आज़ादी का उत्सव

बड़े उत्साह से मनाया,

और आज फिर खुद को

उन्हीं बेड़ियों में जकड़ा पाया..

 

बेड़ियाँ रिश्तों से जुड़ी

उम्मीदों की, जज़्बातों की,

बेड़ियाँ पुरानी यादों की

कही-सुनी बातों की..

 

बेड़ियाँ चाहतों की

ख़्वाबों की, अरमानों की,

बेड़ियाँ कर्तव्यों की

थोपे गए अहसानों की..

 

बहुत तड़पी, मचली

खुद को झिंझोड़ा,

फिर भी इन बेड़ियों ने

मेरा दामन नहीं छोड़ा..

 

जितना छुड़ाना चाहा

उतनी जकड़ती गईं,

और आज़ादी के उत्सव की

ख़ुशियाँ फीकी पड़ती गईं..

 

जकड़े होते हाथ पाँव

तो काट फेंकती इस बंधन को,

लेकिन ये अदृश्य बेड़ियाँ तो

जकड़े बैठी हैं मन को..

 

शायद ये आजादी भी

कुर्बानी चाहती है,

कुछ रिश्तों की या शायद

मेरी ही बलि माँगती है..

 

चाहती हूँ तोड़ मोह के बंधन

अंतर्मन को मुक्त कराऊँ,

विलीन होकर परमात्मा में

आजादी का उत्सव मनाऊँ !!

 

©स्वीटी सिंघल, बैंगलोर, कर्नाटक                                                 

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