लेखक की कलम से

‘छप्पन छुरी’: जानकी बाई

©नीलिमा पांडेय  

लखनऊ। ‘सइयां निकस गए मैं न लड़ी थी, न जाने कौन सी खिड़की खुली थी’… कबीरदास का रचा भजन है। कबीर रहस्यवाद के पुरोधा हैं। मिट्टी के चोले से आत्मा को इस अंदाज में विदा देते हैं। जानकी बाई अपनी आवाज में जब इसे गाती थीं तो दरबारी महफ़िल ठुमक उठती थी और यह ठुमरी का अंदाज ले लेता था। उनकी आवाज बुलंद थी, मक़ाम भी उन्होंने बुलंद ही पाया। गायकी के ख़ास अंदाज से उनका नाम हिंदुस्तान की शुरुआती रिकार्ड की गई आवाजों की फेहरिस्त में शामिल हुआ।

जानकी बाई की पैदाइश बनारस (1880 ईसवी) की थी। पिता शिवबालक राम अखाड़े के पहलवान थे तो माँ मनकी संगीत की समझ रखने वाली रुचि सम्पन्न महिला। चंद रोज के ख़ुशनुमा बचपन के बाद उनके पिता ने माँ-बेटी से मुँह मोड़ लिया। मज़बूरन मनकी देवी ने अपना बनारस का घर बेच इलाहाबाद बसने का फैसला किया। उस वक़्त मदद देने के लिए जो हाथ बढ़ा वह भी स्वार्थ की चाशनी में डूबा हुआ था। मदद का स्वांग करने वाली स्त्री माँ-बेटी को एक कोठे के सुपुर्द कर चलती बनी। यहीं से जानकी बाई का शोहरत हासिल करने का सिलसिला शुरू हुआ।

संगीत की शिक्षा उन्होंने लखनऊ के हस्सू खान जी से हासिल की। गुरु की निगहबानी में उन्होंने अपने सुर को इस कदर साधा कि उनकी गिनती अपने समय की नामचीन गायिकाओं में होने लगी। उनकी शोहरत का अंदाजा इस बात से लगता है कि जार्ज पंचम की ताजपोशी (1910 ईसवी) के वक़्त उन्हें गौहर जान के साथ युगल गीत प्रस्तुत करने के लिए चुना गया। उनके युगल गान पर खुश होकर जार्ज पंचम के द्वारा सौ गिन्नियां भेंट करने का जिक्र दस्तावेजों में है।

जानकी बाई महफ़िलों में गाती जरूर थीं लेकिन ज्यादातर पर्दे से गाती थीं। एक दफे रीवा के महाराजा ने उनके दीदार की इच्छा जाहिर की तो उन्होंने सुर,साज और सीरत के हवाले से अपनी सूरत को बेपर्दा करने से सलीके से इनकार कर दिया। उनकी पर्देदारी से जुड़े कुछ किस्से मिलते हैं। कहते हैं कि किसी नाकामयाब सिरफिरे आशिक़ ने जुनून में उनके चेहरे को छप्पन दफ़े छुरी से गोद दिया था। इसी वजह से छप्पन – छुरी विशेषण उनके नाम से जुड़ गया। इस वाकये के समय उनकी उम्र बारह बरस बताई जाती है। आशिक का नाम रघुनंदन मिलता है जो पुलिस महकमें का मुलाजिम था। कुछ जगहों पर ये किस्सा उनकी सौतेली माँ के हवाले से दर्ज है। तवायफ के पेशे के साथ जुड़े खूबसूरती के स्टीरियोटाइप ने उन्हें मजबूर किया कि वह अपने हुनर और दिलकश आवाज को पर्दे से शाया करें।

संगीत की तालीम के साथ-साथ जानकी बाई ने अंग्रेजी,संस्कृत और फ़ारसी की शिक्षा भी हासिल की थी। खतो-किताबत कर लेती थीं। उनका एक दीवान (दीवान-ए-जानकी) भी मिलता है। खतो-किताबत की बात निकली है तो एक वाकया दर्ज करते चलें। सन 1911 का बरस इलाहाबाद के इतिहास में एक घटनापूर्ण बरस था। जनवरी से शहर महाकुम्भ की रौनक में डूबा था। पूरा हिंदुस्तान मानो इलाहाबाद में इकठ्ठा हुआ जाता था। फरवरी में शहर एक दूसरे जलसे की राह देख रहा था। जलसा भी क्या इतिहास में दर्ज होने वाली तारीख थी। अंग्रेजी हुकूमत की तरफ से यूनाइटेड प्रोविंस में एक औद्योगिक मेले का आयोजन किया गया था। इसी के तहत 18 फरवरी,1911 को हेनरी पिकेट दो सीटर बाई-प्लेन उड़ाने वाले थे। यह एक प्रतीकात्मक उड़ान थी जो दुनिया की पहली ऑफिशियल एयर मेल (First Aerial Post) लेकर जाने वाली थी। जाहिरन सरकार की तरफ से इसका खूब प्रचार हुआ था। तमाम दूसरे लोगों की तरह जानकी बाई ने भी इस ऐतिहासिक मौके पर तीन खत लिख छोड़े थे।

जलालत और अकीदत के बीच जिंदगी गुजारते हुए जानकी बाई सन 1934 में इलाहाबाद के काला डंडा कब्रिस्तान में सुपुर्दे ख़ाक हुईं। आज भी इलाहाबाद के आदर्श नगर इलाके में जीर्ण-शीर्ण पड़ती उनकी कब्र देखी जा सकती है। छप्पन छुरी का तमगा यहाँ भी उनके साथ है। लिखा मिलता है : ‘छप्पन छुरी की मजार’ ।

बीसवीं शताब्दी की दरबारी महफ़िलों की रौनक रही तवायफ़ों की शास्त्रीय संगीत को लोकप्रिय बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका रही है। उनसे जुड़े किस्से संगीत की परंपरा से ही निसृत हैं जो पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तान्तरित हुए। कुछ किस्से लिखे मिलते है जो तवायफ़ों की खुद की कलम से हैं, कुछ मौखिक परंपरा से आये हैं। इनमें से कुछ आवाज बनकर महफूज़ हो गईं बाक़ी ग़र्क़ हुईं। आवाज ही इनकी पहचान है। आवाज जिसमें खनक है, मिठास है जो बारहा उदास है..

 

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