लेखक की कलम से
मेरी तो ज़ीस्त ही इश्क़ का फ़साना हो गया है..
ग़ज़ल
नहीं चाहा था ऐसा हो गया है,
उसे देखे ज़माना हो गया है..
वक़्त-बेवक़्त में उसकी ही याद,
मुझमें उसका सामना हो गया है..
हम तो ‘असीर’ है अपनी ही ख्वाहिशों के,
पाना उसको इरादा हो गया है..
इश्क़ भी क्या एहसास हैं यारों,
लबों का वो तराना हो गया है..
त’अज्जुब है कैसे कोई दिल लगाए बिन रह पाया,
मेरी तो ज़ीस्त ही इश्क़ का फ़साना हो गया है..
©वर्षा श्रीवास्तव, छिंदवाड़ा, मध्यप्रदेश