लेखक की कलम से
रिश्तों के समतल राहों पर भी डगमगाने लगे हैं लोग
अपने ही अपनों से मुँह छुपाने लगे हैं लोग
गैरों की महफिल में मुस्कुराने लगे हैं लोग
सिसक रहें है घर की उदास दीवारें
छत की सीढ़ियाँ गिराने लगें हैं लोग
ढूँढने निकला है आशियाँ, बेगानों की बस्ती में
न जाने कहाँ जाने को पुल बनाने लगे हैं लोग
सींचा था जिस आँगन में तुलसी को जी भरकर
संस्कारों की नींव क्यूँ हिलाने लगे हैं लोग
शीतल था घर का हर कोना वंश वृक्ष की हरियाली से
जड़ों को नफरत की चिन्गारी से जलाने लगे हैं लोग
अजनबी बनकर चल रहे हैं हर जाने पहचाने चेहरे
रिश्तों के समतल राहों पर भी डगमगाने लगे हैं लोग
@अजय “अज्जू”, रांची, झारखंड