लेखक की कलम से
जाने क्यों कभी-कभी
अकसर दिल की बात दिल में रह जाती है,
जुबां कहना चाहे भी तो कह नहीं पाती है,
कहीं कमी सी मां की बहुत नज़र आती है,
जाने क्यों कभी-कभी मां बहुत याद आती है।
कभी गैरों की बेरूख़ी बातें और चालाकियां,
कभी अपनों के दिए ज़ख्म और रुसवाईयां
बढ़ती ये खामोशी कहां फिर रास आती है,
जाने क्यों कभी-कभी मां बहुत याद आती है।
तुम ही जो बिन कहे जान लेते मन की बात,
कुछ तो यूं मरहम का काम करते जज़्बात,
बीती हसीं यादें जब रह रहकर तड़पाती है,
जाने क्यों कभी-कभी मां बहुत याद आती है।
चलो हालात से समझौता कर जीना सीख जाएं,
कभी खुशी और कभी ग़म से हंस के मिलते जाएं,
फिर भी …
जब बात बेबात दिल को ठेस पहुंचाई जाती है,
जाने क्यों तब मां बहुत याद आती है।
©कामनी गुप्ता, जम्मू