लेखक की कलम से

राम की जल समाधि

 

ग्यारह सहस्त्र युग बीत गये, तब विधि ने एक विधान रचा।

काल ने साधु का रूप धरा, प्रभु से मिलने वह जा पहुँचा।।

 

अब समय आपका पूर्ण हुआ, अब अपने लोक चलें प्रभुवर।

यम के जब वचन सुने प्रभु ने, स्वधाम को राम चले तत्पर।।

 

चलने को उद्यत हुए राम,….तब जीवन का चलचित्र चला।

यादों का सागर उमड़ पड़ा,.सब दिखा उन्हें धुँधला-धुँधला।।

 

तब याद करें प्रभु जग जननी, अंतर मन करता है क्रंदन।

आँखों से अश्रुधार बहती,….आहत हो कहते रघुनंदन।।

 

निस्तेज हुआ ये राजमुकुट,…….अंतरघट रीत गया सीते।

व्याकुल हो राम पुकार रहे,…….तू कहाँ गई हे परिणीते।।

 

यह दशों दिशाएं मौन हुई,……लख विरह भरा जीवन मेरा।

मैं बोझ बनूँ क्यों धरती पर,……कहता है आहत मन मेरा।।

 

टूटे जब प्रीति बंध मेरे,…….उर खंडित होकर बिखर गया।

मैं छला गया आदर्शों से,…….पर रूप हमारा निखर गया।।

 

उस कंचन मृग की मृतक देह,…..प्रिय याद दिलाती है तेरी।

मन में मेरे अवसाद भरा, ……व्याकुलता लगा रही फेरी।।

 

बिन लक्ष्मण के हे वैदेही, ………मैं कभी नहीं रह पाऊँगा।

अपने प्रिय भ्रात सहोदर का,…..मैं विरह नहीं सह पाऊँगा।।

 

कहते जब राम व्यथा उर की,…दृग नीर बहा पीड़ा झलकी।

तब स्मृतियाँ आईं वन की,…मानो यह बात अभी कल की।।

 

थक गया आज मैं प्राण प्रिय,……अब यादों के अवशेष यहाँ।

कहते हैं प्रभु पीड़ा मन की, प्रिय तुम बिन अब क्या शेष यहाँ।।

 

प्रभु ने जब प्राण वायु रोकी,..पल भर को सब ब्राह्मांड रुका।

मानो वह नत मस्तक होकर,….था श्रीचरणों में आन झुका।।

 

तन अर्पण करने चले राम,………..सरयू की पावन धारा को।

चंदन जैसा जो श्याम वर्ण,…..अब सौंप दिया जलधारा को।।

 

प्रभु का अन्तिम दर्शन करने,..थी ‘सुमन’ प्रजा में उथल-पुथल।

प्रतिबिंब दिखा प्रभु का ऐसा, जल में बिकसा ज्यों नीलकमल।।

 

जब ज्योतिपुंज जल विलय हुआ, आँखों में ठहर गया वह पल।

उस दिव्यरूप को हृदय समा, सरिता का अमर हुआ कल कल।

©सुमन मिश्रा, झाँसी

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