लेखक की कलम से

काफिला दर्द का ….

आज फिर काफिला दर्द का

चल पड़ा है

यादों से यादों का सिलसिला

चल पड़ा है।

इक़ याद जो दिल को छूकर

चली गई

बहुत सा दर्द दिल पर

आन पड़ा है।

उसे जाना था आखिर वो

चली गई

कभी ना लौटने का स्वर

कानों में पड़ा है।

माना कि वक्त हर जख्म को

भर देता है

पर ये जख्म तो मेरे भीतर नासूर सा

बन पड़ा है।

सुना है ख़ुदा ने बनाए हैं

सभी रिश्ते

फिर क्यूँ हर रिश्ता मुझ से दूर

जान पड़ा है।

लगता है अब रिश्तों में

वफ़ा नहीं है

तभी तो मेरा दिल भी

बेवफ़ा हो चला है।

तमन्ना अब किसी की

मन में नहीं है

कलेजा पत्थर हो गया

जान पड़ता है।

भले ही हो जाएं हम

दूर सबसे

इक हूक तो दिल में

उठती है,

आज न जाने क्यूँ हर

ज्वाला से

दिल शांत हुआ

जान पड़ता है।

तेरा भाणा मीठा लागे

यही सब्र हम करते हैं

उसकी रज़ा में खुश होकर

सबको जीना पड़ता है।

 

 

©डॉ. प्रज्ञा शारदा, चंडीगढ़                

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