लेखक की कलम से

गंतव्य …

 

नहीं दी जाती तरजीह

कभी भी, स्त्री के व्यक्तित्व को

नहीं है अहमियत उसके

जीने के तरीक़े को

नहीं सुनता उसके विचार कोई

नहीं इज़ाज़त उसे तर्क की कोई

चलते हैं रिश्ते उसी के कंधों पर

कोई और विकल्प उसे देता नहीं कोई

जीती है वो परिवार की दुनियाँ में

उलझती-सुलझती सी, उछलती-कूदती

चलती रहती है अनवरत

बहती नदी की भांति

जो नहीं जानती अपना गंतव्य।

 

 

©डॉ. प्रज्ञा शारदा, चंडीगढ़                

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