लेखक की कलम से

दुआएं …

 

जब मन व्यथित हो।

किसी ने बेवजह ही

मन को ठेस पहुंचाई

ऐसा लगता हो।

सवाल जवाबों का

बवंडर मन में

उफ़ान पर हो।

चाह कर भी

क्षमा करना नहीं आसां हो।

बददूवाओं का सैलाब

शालीनता की सीमा तोड़

बहने को आतुर हो,

तो रुकना

गहराई से सोचना

क्या सच में कोई

बददूवाओं का पात्र है?

क्या उसने हमारे लिए

कभी कुछ भी नहीं किया?

हमारे सुख के लिए

कभी कुछ भी नहीं दिया?

क्या जो दृष्टिगत है

वही सत्य है?

या फिर जो अदृश्य है

वो भी सत्य है?

 

तन्हाइयों में सोचिये।

मनन कीजिये।

ऐसा तो नहीं

की हमारा ही कोई गुनाह

शूल बन चुभ रहा हो।

ख़ुद की तस्सली के लिए

दोष किसी और को

अकारण ही दिया जा रहा हो।

कहीं ऐसा ना हो कि

निर्दोष को दी गई बददुआएँ

बैरंग लौट आएं।

हमारे ही दुख का

सबब़ बन जाएं।

 

जब मन दुखी हो।

दिल से आहें निकलें

तो भी मुहं से निकलें

तो बस दुआएँ ही निकलें।

जो बोएंगे वही तो मिलेगा।

न्याय चक्र यूं ही तो चलेगा।

 

©ओम सूयन, अहमदाबाद, गुजरात         

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