लेखक की कलम से

आसमाँ औरत का…

 

सिसकियां भरती वो औरत

क्यों खुद को बाँधे है।

क्यों नहीं रचती अपना संसार

क्या जीवन के अस्तित्व को

यूँ ही जाने देगी बेकार।

इस निर्ममता से क्यों

कराती है अपना शिकार।

क्या उसका जीने का नहीं कोई अधिकार।

क्या चहाती है वह खुद से

क्यों लौट जाती है उस पार

जहाँ जीना दुर्लभ है उसका

मातृत्व को जीवित रखती है वो।

क्या उसका होना आजादी नहीं

क्यों जिन्दा नहीं रख पाती

अपने विचार।

मर जाती है हर जन्म से पहले

औरत होना क्या है बेकार।

क्यों नहीं करती पहल

जीने की 

ये है उसका

जन्मसिद्ध अधिकार।

क्यों गुडाई जाती है हर बार

क्या औरत को ही है केवल

संस्कार देने का अधिकार

नही माँगती वो अपने

बराबर होने का अधिकार।

मत पिछड़ सबसे

तेरा भी है ये संसार।

इस पृथ्वी ने नहीं बाँटा है कुछ

फिर तू क्यों बंटती है हर बार।

छीन ले उस हक को

जो तेरा है।

मत भर सिसकियां इस तरह

वरना मारी जाएगी हर बार।

प्रेम भरा जितना तुझमें

मत कर उसका तिरस्कार।

जीवित रख इसको

पर मृत्यु के नज़दीक मत जा।

मत कर खुद अपना अपमान

है तेरा अधिकार

आगे खड़े होने का।

धकेल उस जीवन को

जो तुझे हारने पर

मजबूर कर रहा है।

सीड़ियाँ तेरी है पैर भी तेरे

भर उड़ान इतनी

की आसमाँ खुद नीचे आ  जाए।

कर ले मुठ्ठी में  वरना

रहे जाएगी लाचार ।

तुझ से है ये संसार

तू है सृष्टि का अविष्कार

©शिखा सिंह, फर्रुखाबाद, यूपी

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