मैं आदिवासी हूँ ….
मैं आदिवासी हूँ,
मानव जाति के ,
इतिहास की,
मैं मूल निवासी हूँ।
मैं आदिवासी हूँ,,,,
सृष्टि के निर्माण से,
आखेटक युग तक,
आखेटक काल से,
सभ्यता के विकास तक,
जंगल झाड़ियों का,
मैं रहवासी हूँ ।
जी हाँ, मैं आदिवासी हूँ,,,,,
इतिहास का हर घटनाक्रम,
मैंने अपने आँखों से देखा है।
बनते बिगड़ते तख्ते ताज का,
क्रमशः मेरे पास लेखा है।।
कभी एकलव्य सा उपेक्षित,
कभी राम सा वनवासी हूँ।
जी हाँ मैं आदिवासी हूँ—-
बिरसा मुंडा, गुंडाधुर जैसी,
मैं फौलादी छाती हूँ ।
सोनाखान और गढ मण्डला सी,
मैं बलिदानी माटी हूँ।।
देशप्रेमी हूँ, वीर नारायण सा,
मैं तिलका माँझी सा साहसी हूँ।
जी हाँ, मैं आदिवासी हूँ—-
जल, जंगल और जमीन ,
मेरे अस्तित्व का पहचान है,
विकास की अंधी दौड़ में,
आज भटका हुआ इंसान है।
क्या होगा इस धरा का,
यह सोचकर मैं उदासी हूँ।
जी हाँ मैं आदिवासी हूँ–
करमा, ददरिया, रिलो, सरहूल,
मैं मांदर, और ढोल की थाप हूँ।
कमार, भुंजिया, पहाड़ी कोरवा,
मैं अपनी सभ्यता अपने आप हूँ।।
मैं हूँ सल्फी, महुआ का रस,
मैं छत्तीसगढ़ीया चटनी बासी हूँ।
जी हाँ, मैं आदिवासी हूँ—
सीधा -सादा जीवन मेरा,
मेरी ताकत तीर कमान है।
सबको मैंने अपना माना,
सब मेरे लिए एक समान है।
मेरा मन गंगा सा निर्मल,
मैं तीर्थों में अयोध्या काशी हूँ।
जी हाँ, मैं आदिवासी हूँ
©श्रवण कुमार साहू, राजिम, गरियाबंद (छग)