लेखक की कलम से

अटकल …

 

मन ही मन का दर्द न समझे।

कैसे हो कान्हा से प्रीत,

मन मे बसा बनवारी निश्चित भाव

से देखे लीला सारी।

कान्हा की तो सृष्टि  सारी

मन ही मन को जानता,मनवा करे

मनमानी,मन ही मन का मीत है।

मन झूमें होकर बावरा,

मन की अद्भुत रीत

मन बैरी जब भयो जग वैरी

हो जाये।

मन जो श्याम  को दे दियों

बंधन मुक्त हो जाए।

मन को भक्तिलीन कर चित  से

चिंता  गवाय।

ठाकुर जी की चाकरी निर्मल करे

स्वभाव को,आवागमन से मुक्ति

दिलाये।

मन निराश हो चित हारे,

मन प्रसन्न सृष्टि भ्रमण कर आये।

मुरली वाले की हो कृपा हीरा जन्म बन जाए

बावरे मन फिर कर हरि भजन

क्यो आवागमन भटकाये

माया मिटे तिमिर मोह छूटे

ज्योत अमर हो जाये।

 

©आकांक्षा रूपा चचरा, कटक, ओडिसा

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