लेखक की कलम से

महिला सशक्तिकरण में मीडिया का योगदान …

वैसे तो 21वीं सदी में कुछ महिलाओं के साथ हो रहे अन्याय अब तो ख़त्म ही होने चाहिए, पर शायद अभी कुछ सदियाँ और इंतज़ार करना पड़ेगा उस सुबह का जो हर महिला के लिए आज़ादी की किरणें उजागर करें, आज महिलासशक्तिकरण के लिए हर कोई मुहिम जगा रहा है, उसमें से एक मजबूत माध्यम है सोश्यल मीडिया, सोशल मीडिया वाले हर बार अतिरेक नहीं करते, मीडिया आज एक सशक्त माध्यम बन गया है।

मीडिया महिलाओं को अपने दृष्टिकोण और अपनी राय को सामने रखने का एक मंच प्रदान करता है जो काबिले तारीफ है। कहीं पर भी महिलाओं के साथ हो रहे अन्याय को समाज के सामने पल भर में उजागर कर देता है। साथ ही महिलाएं क्या महसूस करती हैं, समाज के बारे में उनकी क्या राय है, किन-किन चीज़ों में वे बदलाव चाहती हैं, यह बातें महेत्वपूर्ण हो जाती हैं जब महिलाएं अपने विचारों को सोशल मीडिया पर प्रस्तुत करती हैं। रूढ़िवादी सोच वाले समाज में महिलाओं को अपनी राय रखने का मौका नहीं दिया जाता, लेकिन सोशल मीडिया ने इस बंदीश को तोड़ा है महिलाओं को सशक्त महसूस करवाने में अपना शत प्रतिशत योगदान दिया है।

सोशल मीडिया के ज़रिये महिलाएं खुद को ही नहीं बल्कि अन्य महिलाओं को भी सशक्त कर रही हैं। वह अपनी प्रगति और उपलब्धियों को जब सोशल मीडिया पर शेयर करती हैं, तो अन्य महिलाएं भी उन्हें देखकर आगे बढ़ने का प्रयास करती हैं।

महिलाओं के मुद्दे कभी भी पहले इतने चर्चा में नहीं होते थे जितने आज हैं। यह मीडिया के कारण ही है। आज अगर किसी पर तेजाब फेंकने घटना होती है, किसीके साथ बलात्कार होता है या कोई भी अन्याय होता है कैंडल मार्च और मीडिया की सजगता की वजह से आरोपी जल्द से जल्द सलाखों के पीछे होता है। छेड़खानी बलात्कार या प्रताड़ना जैसी घटनाएं मीडिया के द्वारा प्रकाशित करने पर न्यायिक प्रक्रिया भी गतिवान बन जाती है।

मीडिया लोकतंत्र का चौथा स्तंभ है। इसकी महिला सशक्तिकरण में अहम भूमिका है। यह महिलाओं में आत्मविश्वास पैदा करने का काम करता है।

इसमें कोई संदेह नहीं कि निर्भया को इंसाफ दिलाने में मीडिया की अहम भूमिका रही है।

वैसे देखा जाए तो महिला सशक्तिकरण ये शब्द ही अपने आप में खोखला नहीं लगता?

स्त्रीयों को निर्बल, लाचार, अबला समझने वाले एक बार नौ महीने 5 किलोग्राम वज़न पेढू पर बाँधकर रखें और नाक के छेद में से नारियल निकालने वाला, जाँघो को चीर देने वाला बच्चे को जन्म देते वक्त होने वाले दर्द से गुज़र कर देखे। फिर कहें की महिला अशक्त है या सशक्त।

परिवार का वहन सामाजिक ज़िम्मेदारीयां और अब तो हर दूसरी स्त्री नौकरी करती है जो घर और ऑफिस हर मोर्चे पर बखूबी अपनी काबिलियत से अपना वजूद प्रस्थापित करती है।

फ़ेमिनिज़म एक एसी विचारधारा है जो स्त्री और पुरुष के समान अधिकारों का का समर्थन करती है। एसी विचारधारा ही क्यूँ ? पुरुष को प्रधान और स्त्री को दूसरे पायदान पर अबला, बेचारी सी खड़ी कर दी जाती है। जब की हर क्षेत्र में आज की स्त्री अग्रसर भूमिका निभाती है। पुरानी और खोखली रवायतों को तोड़ कर अब लड़कीयों को पूरा मान सम्मान और अधिकार देना चाहिए।

अबला, लाचार और अशक्त जैसे शब्दों को शब्द कोश से हटा देने चाहिए ये शब्द ही हर इंसान के मानस में स्त्रीयां कमज़ोर होने के भाव पैदा करते है। अब स्त्री विमर्श में लिखना बंद करके स्त्री की शक्ति और क्षमता के किस्से लिखों स्त्री को अबला नहीं दुर्गा समझो। अब महिला सशक्तिकरण नहीं लड़कों के ससंस्करण करने का समय आ गया है ताकि शुद्ध समाज का निर्माण हो मीडिया को और भी बहुत काम करने होते है।

 

©भावना जे. ठाकर

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