लेखक की कलम से

लाल किला…

जब भी मैं आपकी सीढ़ियों पर पैर रखती हूँ, जब भी मैं आपके शरीर को छूती हूँ,
प्रागैतिहासिक ममी बन जाती हूं, लाल, नीला, पीला कोहिनूर बन जाती हूँ!

पल भर में ही बन जाती हूँ इतिहास …

मैं खुद को महल के बरामदे पर पाती हूँ । क्या मैं महारानी जोधाबाई हूँ? मेहेरुन्निसा? या एक पराजित राजा की प्यारी सी राजकुमारी हूँ जो एक गुप्त कमरे में कैद थी? जिनके आसुँओं कि धारा नदी बनकर बहते रहते थे अविराम…

या वो उपेक्षित महिला
जिसकी घुंघरू की आवाज़ में
काँपती थी, रोती थी, आकाश, हवा, ईंट -ईंट, पत्थर -पत्थर?

या फिर हरेम की वह महिला जो कभी भी महाराजा का ध्यान एक पल के लिए भी आकर्षित नहीं कर पाई? जिसके दुःखों की गाथा में अमावस्या का अँधेरा
और गाढ़ा होकर तुम्हारे आँगन में गिरती थी…?

या सिर्फ एक नौकरानी? जिसकी आह से अभी भी भारी होता है बकुल तला?
जो उपेक्षित होकर भी दिन-रात कोल्हू के बैल की तरह मेहनत किया करती थी…?

मेरे आँखों के सामने हर किरदार जीवित हो उठता है

मैं उन्हीं की छवि अपने आप में देखती हूं …!

-मनीषा कर बागची

Back to top button