अद्भुत पल …
बार-बार आती है मुझे,
मधुर स्मृति बालपन की!
गया ले गया अद्भुत पल,
तू मानव जीवन की !
नासमझी के पल थे वह,
गुड़िया-गुड्डो सा जीवन था!
छोटी-छोटी तवा-कढ़ाई
और पूड़ी-सब्जी संग था!
अल्हड़युक्त जीवन निर्मल था,
वह बालकपन था !
दोस्तों के संग छुपा-छुपी और
झूलो सा बचपन था!
गोधूलि बेला में,
सिर्फ दोस्तों का ही संग था!
बॉल-बैट के संग,
चौके-छक्कों का रंगारंग था!
रविवार के दिन,
रस्सी कूदने का कंपटीशन था!
25,50,75,100 पर,
थमने का नियम था!
जन्माष्टमी में हर घर में,
कृष्ण का जन्मोत्सव था!
रात 12 बजे से स्वादिष्ट,
पकवानों का क्रम था!
सर्कस की तो बात निराली,
झूला झूलने का मन था !
चाट-पुचका के संग,
बेलुनों का उद्दंड था!
नहीं था पढ़ाई का बोझ,
सगे-संबंधियों का संग था!
संयुक्त परिवार से युक्त,
सामाजिक जीवन था!
वटवृक्ष हुआ करते थे हर घर,
उनके तले सुखद जीवन था!
नहीं ताप,वर्षा,शीत,
बसंत का जीवन था!
कैसे भूला जा सकता है,
वह नैसर्गिक जीवन था!
काश!बुला पाती,जी लेती,
ऐसा अंतस स्वप्न था!
पर कहां पुनःआते हैं वे पल ,
जो बस गुजर जाते हैं!
मुरझाया,कुमलाया कुसुम
क्या हरिया पाते हैं?
मन की एक बात साँझा करती,
हूं तुम संग मेरे प्यारे !
गुजरा वक्त अनुपम लगे,
यह मानो मेरे प्यारे !
जी लो,तुम हर एक क्षण को,
जो वर्तमान प्रबल है!
गया समय नहीं लौटेगा,
यह अकाट्य सत्य है !
©अल्पना सिंह, शिक्षिका, कोलकाता