लेखक की कलम से

चलो सब साथ मिलकर विश्व शांति की कामना करते हाथ उठाएं …

हे ईश्वर हम चोरी, भ्रष्टाचार, दंगे, बलात्कार और धर्मांधता के आदि तो बन चुके हैं। अब रहम करो हर कोई अपने स्वजन खो रहे हैं, कहीं मौत की खबर सुनने के आदि होते रहे-सहे अहसास भी ना खो दें। ये सोचते हुए कि होता है, चलता है, ज़िंदगी है। कहीं एक दिन ऐसा ना आए कि एक दूसरे को हंस हंस कर मौत की खबर देते कहीं पत्थर ही ना बन जाएं।

कभी श्मशान के सामने से भी गुज़रने से डरने वाले सैंकड़ों चिताओं को जलता देख अवसाद निगल रहे हैं। एक साल पहले मरने वालों की खबर पर जो दिल दहल जाता था आज खबर पर खबर पाकर हल्का सा कराह कर रह जाता है।

संवेदना की बलि चढ़ाकर सामान्य होने का ढ़ोंग करते जीने की कोशिश तो करते हैं पर मन सकते में रहता है। फ़ोन की घंटी पर दिल धड़क चुक जाता है कि कहीं से वापस कोई ऐसी खबर ना हो। फेसबुक, वाटसएप पर हर तीसरी पोस्ट गमगीन बना देती है।

संघर्ष और चुनौतियां देते शायद ज़िंदगी उब चुकी है जो अब मौत के नये तमाशे से खेल रही है। महाकाल शायद जश्न मना रहे है खोपड़ियों की माला उनकी पुरानी हो गई लगती है या कृष्ण ने जनसंख्या को नियंत्रित करने की ठान रखी है। क्या समझे मौत की ऊंगली पर ज़िंदगी नाच रही है।

कभी देखा न सुना ऐसा मंज़र दिखा रहा है वक्त। अपनों के मौत पर अपने श्मशान तक छोड़ने भी नहीं जा सकते। वक्त ने ऐसा मौसम दिखाया है कि बारिश ही बारिश बरस रही है, आंखों की ज़मीन अब अकाल को तरस रही है।

माना जिसने जन्म लिया है उसकी मृत्यु निश्चित है पर क्यूं लंबी लकीरों में भरी ज़िंदगी आधे रस्ते ही गुम होती जा रही है। हंसी खुशी निढ़ाल होते मातम में ढ़ल रही है। हर घर की खिड़की पर मौत टंगी नज़र आ रही है। ए रब तू दया कर, चलो दुआओं में सब साथ मिलकर हाथ उठाएं। विश्व शांति की कामना करते रुठे ईश्वर को मनाएं। काश कि एकसाथ की हुई प्रार्थना उस अर्श की चौखट से टकराए और दाता के नेमत घट से ज़िंदगी छलक जाए। फिर से वो मंज़र दिख जाए हर आँगन हर आँगन खुशियों के फूल खिल जाए।

©भावना जे. ठाकर                     

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