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पेड़ कहे इंसान से…
पेड़ कहे इंसान से,
मैं कितना काम तुम्हारे आता हूं।
जब तुम गुजरते हो मेरे नीचे से,
छाया में तुम मेरी सुस्ताते हो।
जब मैं देता हूं फल तुम्हें,
तो खुश,मजे से खाते हो।
पेड़ कहे इंसान से,
मैं कितना काम तुम्हारे आता हूं।
काट कर जब तुम मुझे,
खिड़की, दरवाजे बनाते हो।
घर को तुम अपने,
मुझसे खूब सजाते हो।
मेरा टेबल, सोफा बनाकर तुम,
करते हो उस पर आराम तुम।
फिर मुझे बेच भी देते हो,
दूसरों से लेकर दाम तुम।
कीलें गाड़ कर मुझ पर तुम,
दीवारों को खूब सजाते हो।
आखरी समय में, मैं तुम्हारी,
चिता में काम आता हूं।
फिर मेरी राख को मैं,
गंगाजल में ले जाता हूं।
पेड़ कहे इंसान से,
मैं कितना काम तुम्हारे आता हूं,
पेड़ कहे इंसान से…
©सोहनलाल डमाना, नई दिल्ली