आज किसान दिवस है
वो नहीं चाहता
हिस्सा बनना
चुनावी भीड़ का
सफेदपोश नेतावों के भाषण
ठीक उसी बीज़ की तरह
जो खेती में गिरते
पर नहीं पनपते
मुरझाया चेहरा
नहीं मोहताज
सरकारी नीतियों का
पड़ जाती है झुर्रिया
उसके चेहरे पर
ताकते जीवनभर
आसमान बरसाती का
उसे नहीं फ़िक्र
वायदों के राजमार्ग का
उसे रोज सवारनी
वो धसती पगडण्डी
पुरखों की
इन्द्रधनुष्य रंग देख
नहीं चमकती
उसकी पुतलिया
परिश्रम रुपी
हरे रंग से सजाना
वसुन्धरा का तपता सीना
केसरीयाँ रंग कि लपटे
हर उस चूल्हे की पहचान बने
जहाँ
भूख मचा रही तांडव
कभी गरीबी के
तो कभी नंगों की भेष लिए
अंत में वही सवाल
फिर है तैयार लाचार सा
हमें फ़िक्र है
चाँद की धरती की
हमें फ़िक्र है
अमीरों की गद्दी की
हमें फ़िक्र है गिरते नोटों की
बढ़ते दामों कि
शेयर बाजार के बदलाव की
हमें क्यों नहीं फ़िक्र
दो वक्त के
रोटी के निर्माणकर्ता
अन्नदाताओं की।
©सरिता सैल, कारवार कर्नाटका