लेखक की कलम से

महानगर

कितनी विसंगतियो से

भरा पडा है ये महानगर

जगा रहता प्रहर प्रहर

हरदब रहता है भरा

लबालब उजाले से

कभी बिजली कभी सुरज

अँधयारे का हर कतरा

ढूँढ लेता है जगह

इन्सानो ह्रदय मस्तिष्क मे

छुती आसमान इमारतें

उतनी ही बौनी आती नजर

इन्सानो की फितरते

सुरज के सिने पे बैठकर

ढकता है श्रमिक

हजारो मन्जिले भवनों को

पढा रहता है वही श्रमिक

निपट आसमान के निली च्छाव तले

शोरगुल मे शब्द घुमते रहते

बिना पेहने

परिधान संवेदनशीलता के

यत्रवत कदमों में है लगी

भुख कि बेढियाँ

मन देहलिज की किवाडे

बंद पडी है संदियो से

अविश्वास रुपी लगे ताले

हर आँखो पे

इन्तजार करती लावारिस लांशे

जो छुट गये थे कभी

अपने कुनंबेसे

निरतंर छुट रहे है आज भी अपने पुश्तैनी गांवो से

सरिता सैल

-कारवार कर्नाटका

सम्प्रति : महाविद्यालय में अध्यापन। विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में लेखन। 

एक संग्रह “कावेरी एवं अन्य कवितायेँ” प्रकाशित।

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