लेखक की कलम से
हमसफ़र …
मैं सिंदूर की लाली में
महसूस करतीं हूँ
तुम्हारे हाथों से बनी चाय
जिसमें तुमने मसालों को
कूट-कूट कर डाला है
गले में लटके मंगलसूत्र में
महसूस होता है
तुम्हारा स्नेह
कि तुम मुझे जगा रहे हो
‘बाबू’ की ध्वनि में
जब पायजेब बजती है
मैं देखतीं हूँ
तुम्हारी आँखें
जिसमें झाँक कर
मैं मेमना बन जाती हूँ
और तुम बन जाते हो
रखवाले
चूड़ियों के रंगों से
महकती है मेरी बगियाँ
जहाँ के पुष्प तुम्हारी देन हैं
फिर मैं देखती हूँ
कैसे मेघ
रो रहे हैं
शायद उन्हें नहीं मिला
कोई तुम सा
‘हमसफ़र’
जिसने उनके आँसुओं को
सीने में सम्भाला हों
और उन्हें दिया हों
अपना जीवन
©वर्षा श्रीवास्तव, छिंदवाड़ा, मध्यप्रदेश