लेखक की कलम से

हम सबका नाम ? वियतनाम …

ठीक 75 वर्ष आज हुये। ”एशिया के गांधी” अंकल ‘हो’ (डा. हो ची मिन्ह) वियतनाम के राष्ट्रपति (2 मार्च 1946) चुने गये थे। भारत तब स्वतंत्रता की देहरी पर था। चीन कम्युनिस्ट गणराज्य नहीं बना था। अमेरिकी सेना के तले सिसक रहा था। अंकल हो ची मिन्ह का भारत आभारी है कि चीन को रोकने के लिये आज बने एशियाई रक्षात्मक गणबंधन में जापान और दक्षिण कोरिया के साथ वह भी खड़ा है। चीन ने इसी भारतमित्र पर हमला (17 फरवरी 1979) किया था। तब भारत के मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी चीन तथा वियतनाम दोनों से मित्रता का दावा कर रही थी। उसका मानना था साम्यवादी राष्ट्र आक्रामक कभी नहीं हो सकता। युद्ध तो कर ही नहीं सकता। तभी जनता पार्टी (मोरारजी देसाई काबीना में विदेश मंत्री) अटल बिहारी वाजपेयी चीन की यात्रा पर गये थे। आधे में छोड़कर दिल्ली लौट आये थे।

अंकल हो ची मिन्ह अपनी ठुड्डी पर की दाढ़ी से दुनियाभर के बच्चों के चाचा बन गये थे। भारत में भी। आज इसी राष्ट्र के सागरतट पर भारतीय सुरक्षा गार्ड चीन को डराये हैं कि यदि उसने कोलकाता, मुम्बई और चेन्नई तटों पर कुदृष्टि डाली तो वियतनाम तट से भारतीय नौ सेना भी उसके लिये कठिनाई उपजा सकती है।

प्रधानमंत्री सितंबर 2016 में राजधानी हनोई गये थे। उन्होंने पचास करोड़ डालर दिये थे ताकि वह चीन के विरुद्ध सैनिक सामान खरीद सके।

इसी बीच नेपाल, म्यांमार, श्रीलंका, बांग्लादेश आदि की चीन से यारी प्रगाढ़ हो रही है। उन्हें याद दिलाना होगा कि चीन का पड़ोसी कम्युनिस्ट वियतनाम भारत का अटूट समर्थक है। साथ में ताईवान गणराज्य, बागी हांगकांग, जापान और दक्षिण कोरिया भी|

अतः कैसे नन्हें वियतनाम ने चीन के पहले महाबली अमरीका को खदेड़ा था? इस शौर्यगाथा का जिक्र हो जाय ताकि चीन भी समझ ले कि वह भारत के पड़ोसियों को बरगला सकता है, तो उससे सटे हुए पड़ोसी मंगोलिया, ताजातरीन रूस (पुतिन वाला) और वियतनाम भी भारत के पक्षधर हैं|

तो जान लीजिये कि वियतनाम (#एक_दिया) अमरीका (#तूफान) से कैसे टकराया और जीता था। पहली मई साढ़े चार दशक पूर्व की बात है। वामनाकार वियतनाम ने दैत्यनुमा अमेरिका से स्वभूमि को मुक्त कराया था। सवा सौ सालों के दौर में विभिन्न साम्राज्यवादियों (फ़्रांस मिलाकर) से वह लड़ता रहा। मगर अमेरिका आखिरी नहीं था। कम्युनिस्ट वियतनाम की जनसेना ने विस्तारवादी चीन की जलसेना को भी ढकेल दिया था, जैसे अमरिकी वायुसेना के साथ किया था। अपनी आजादी अक्षुण्ण रखी। उसके दशकभर (1965-75) की जंगे आजादी में कई भारतीयों का भी क्रियाशील योगदान रहा।

मुम्बई के फ्लोरा फाउन्टेन के हुतात्मा चौक पर बम्बई यूनियन ऑफ़ जर्नलिस्ट्स के हम युवा सदस्य हथेलियां साथ बांधकर, श्रृंखला बनाकर, नारे गुंजाते थे, “तुम्हारा नाम वियतनाम, हमारा नाम वियतनाम। सबका है वियतनाम।” अमेरिकी वैभव से चौंधियाये बम्बईया लोगों ने भी तब जाना कि नवउपनिवेशवाद की फिर एशिया पर छाया पड़ रही है। किन्तु हम श्रमजीवी पत्रकारों का संघर्ष बिखर गया, क्योंकि वियतनाम की स्वतंत्रता की भांति हम लोग तब हंगरी, पोलैण्ड, चैकोस्लोवाकिया की सोवियत साम्राज्यवाद तले कराहती जनता की रोटी और आजादी की लड़ाई को वियतनाम के मुक्ति संघर्ष से जोड़कर नवउपनिवेशवाद के विरूद्ध अभियान बनाना चाहते थे। अर्थात वामी कथित प्रगतिशील लोग टूट गये। क्योंकि उनका मानना था कि कम्युनिस्ट राष्ट्र (सोवियत संघ) ने पड़ोसियों पर हमला नहीं किया है।

वियतनाम फ्रांसीसी उपनिवेश था, जब दृढ़तम फ्रेंच सैन्य किले डियान बियानफू पर 1954 में वियतनामी खेतिहर श्रमिकों ने फतह पाई। विश्वभर के युद्ध निष्णात दातों तले अंगूठा चबाने लगे थे। वियतनामी सेनाध्यक्ष जनरल वोएनगुआन गियाप की रणनीति को विश्व का हर सेनापति याद रखता है। युद्ध की संरचना देखिये। अचंभा तो यह था कि राजधानी साईगान में अमरीकी फौजी रसोई की महिला वेटर और अमेरिकी राजदूत का ड्राइवर वियतनामी मुक्ति संघर्ष की गुप्तचर संस्था में कार्यरत थे। अमेरिकी समर्थित कठपुतली सरकार के विरूद्ध वियतनामी जनता का प्रचारतंत्र भी काफी दृढ़ था। स्वयं राष्ट्रपति हो ची मिन्ह का अभियान सूत्र था कि इस कठपुतली सरकार ने अस्पताल कम, मगर जेलें अधिक बनाई है। शराब और अफीम विक्रय केन्द्र बहुतायत में है, किन्तु गल्ले की दुकानें नहीं हैं। तब त्रसित आमजन भी संघर्ष से जुड़ गये थे।

इतना सब होते हुये भी आज एकीकृत मुक्त वियतनाम और संयुक्त राज्य अमरीका के पारस्परिक संबंध अत्यंत मधुर हैं। अमरीकी उद्योगपतियों ने वियतनाम में खरबों डालर का निवेश किया है। अमरीका की कोशिश है कि दक्षिण चीन समुद्र में वियतनाम को सशक्त सागरतटीय रक्षाकेन्द्र बनायें, ताकि चीन की बढ़ती सैन्य शक्ति से तटवर्ती जापान, दक्षिण कोरिया, ताइवान आदि राष्ट्रों को सुरक्षित रखा जा सके। भारत भी इस संदर्भ में अमेरिका की रणनीति से सहमत है। चीन और पाकिस्तान के गठजोड़ से भारत के सामरिक हित खतरे में पड़ गये हैं। अतः वियतनाम का सैनिक रूप से ताकतवर होना भारत के हित में ही है। कूटनीति में कहा भी जाता है कि मित्र और शत्रु शाश्वत नहीं होते। शत्रु का शत्रु हमारा मित्र है। कभी हिन्दी-चीनी भाई-भाई का नारा लगता था। स्वयं नेहरू के सामने चीन ने अरूणाचल तथा लद्दाख की जमीन हड़प ली थी।

भारत को मानना होगा कि वियतनाम की रक्षा भारत के पूर्वोत्तर सीमा की सुरक्षा से जुड़ा है। इसीलिए यह सूत्र सामायिक है, समीचीन भी : “हमारा नाम वियतनाम, तुम्हारा नाम वियतनाम।”

 

©के. विक्रम राव, नई दिल्ली

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