लेखक की कलम से
यूँ ही खुद को मिटा दिया …
यूं ही सब कुछ समेटते-समेटते ,
खुद को जाने कब कहां मिटा दिया ,
किसी ने पूछा अगर अपना हाल ,
यूं ही बस आहिस्ता से मुस्कुरा दिया ,
बचा ही क्या था जलती लकड़ियों में -२,
हृदय तिनका मात्र था वो भी जला दिया ,
यूं ही सुलगते-सुलगते एक अग्निकण ने ,
देखते ही देखते मन श्मशान बना दिया ,
मिल भी जाएं अगर
सितारे अब मुट्ठी भर ,
चमकेंगे किस तरह जब
आसमां ही भिगो दिया ,
वक़्त रहते सम्भल जाना
ही सबसे भला है ,
लकीर पीटने से क्या होगा ,
जब सब कुछ लुटा दिया ,
क्या कर लोगे गर भर भी
लिया चांद मुट्ठी में ,
चांदनी तो तब बिखेरेगा जब ,
उसको आजाद करा दिया !
©कल्पना चौधरी, बुलंदशहर, उत्तर प्रदेश