लेखक की कलम से

कमल सी खिल गई है……

भूल गई है बेचारगी, कमल सी खिल गई है, तोड़ कर बंधन की जंजीर आजकल की लड़कियाँ कहाँ से कहाँ पहुँच गई है।आज की लड़की लिख लेती है अपने रचाए हर किर्तीमान हर परचम और ज़िंदगी के रंगीन हर सूर हर ताल लिखती है।

लिखती है सखियों संग बतियाई गोसिप या ब्वॉयफ्रेंड संग बिताए अंतरंगी पल,
कभी साज ओ शृंगार की बातें लिखती है तो कहीं कलम को मुखर कर कामसूत्र के अध्याय भी लिखती है।

नहीं डरती वर्णन से, अपने हर अंग को शब्दों में ढ़ालने से, तन का लालित्य और होंठों को कमान लिखती है
माहवारी का दर्द कहीं खुलकर लिखती है तो प्रसूति की पीड़ा का सार भी लिख लेती है।

भूल गई है हर विमर्श की धूप अब तो खुद के रचाए शामियाने की छाँव ही छाँव लिखती है,
भूल गई है माँ और दादी की खोखली हिदायत तू लड़की है तुझे ये शोभा नहीं देता वाले वाग्बाण नहीं लिखती है।

बंदीश की दहलीज़ लाँघकर सपनो की सैर पर निकलते अपनी तमन्ना और हर अरमान लिखती है,
छिपाती नहीं अहसास अपने, हलक में अटके विद्रोह की खुलकर हर आग लिखती है।

कहीं पर प्रताड़ित अपनी बहनों के दर्द की ख़लिश पर जमकर बरसते समाज को झाडते शब्दों की तलवार बिंजती है
आज की लड़की देखो अपने पैरों पर खड़ी होना सीख गई है।

©भावना जे. ठाकर

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