लेखक की कलम से

उठो! पृथ्वी पुत्रों….

उठो! पृथ्वी पुत्रों,
पृथ्वी को बचा लो तुम,
सिमट रहे हैं सागर,
सिमट रही हैं नदियां,
सूख रही हैं झीलें,
बिगड़ रहा है पर्यावरण,
इनका संतुलन बनाओ तुम,
उठो! पृथ्वी पुत्रों,
पृथ्वी को बचा लो तुम।

प्रकृति देती है सदा चेतावनी,
फिर भी हम अनजान क्यों हैं?
ढूंढ रहे हो चांद पर जीवन तुम,
ढूंढ रहे हो चांद पर पानी तुम,
ढूंढ रहे हो मंगल पर जीवन तुम,
ढूंढ रहे हो मंगल पर पानी तुम,
धरती के पानी को तो संभालो तुम,
पानी को बचा लो तुम,
उठो! पृथ्वी पुत्रों,
पृथ्वी को बचा लो तुम।

रो-रो कर कह रही धरती मां,
कितने पेड़ काटे तुमने?
उसका मुझे हिसाब दो,
कितने वृक्ष लगाए तुमने,
उसका भी हिसाब दो,
रो-रो कर कह रही धरती मां,
पेड़ों को बचा लो तुम,
उठो! धरती को बचा लो तुम,
उठो! पृथ्वी पुत्रों,
मेरी शान बचा लो तुम,
उठो! पृथ्वी पुत्रों,
पृथ्वी को बचा लो तुम।

बढ़ रहा प्रदूषण इतना,
प्रदूषण को संतुलित करो तुम,
जीने को चाहिए साफ हवा,
तभी सांस ले पाएंगे हम,
एक दिन दुखी होकर धरती बोली!
चीर-चीर कर मेरा सीना,
इतने जख्म दिए तुमने,
मैं धरती मां हूं, जगजननी हूं,
सब कुछ सह कर भी,
करती हूं सृजन फिर से,
उठो! पृथ्वी पुत्रों,
धरती को बचा लो तुम।

बढ़ रहा है भू-मंडलीय तापमान,
पिघल रहे हैं ग्लेशियर,
फट रहे हैं ग्लेशियर,
इनको संतुलित करो तुम,
बार-बार आ रही है बाढ़,
मचा हुआ है हाहाकार,
लोगों को बचा लो तुम,
गांव को बचा लो तुम,
किसानों को बचा लो तुम,
खेतों को बचा लो तुम,
बर्बाद हो रहा है अनाज,
उसको भी संभालो तुम,
उठो! पृथ्वी पुत्रों,
पृथ्वी को बचा लो तुम।

टूट रही हैं चट्टानें,
दरक रहे हैं पहाड़,
आ रहे हैं भूचाल,
फट रही है जमीन,
आ रही हैं बाढ़,
इनको भी संभालो तुम,
फट रहे हैं बादल देखो!
हर तरफ है मची तबाही,
आ रहे हैं तूफान,
इनको भी संभालो तुम,
उठो! पृथ्वी पुत्रों,
पृथ्वी को बचा लो तुम,
पृथ्वी को बचा लो तुम।

 

©लक्ष्मी कल्याण डमाना, नई दिल्ली        

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