लेखक की कलम से

जब मैं खो जाऊं …

 

जब मैं खो जाऊं

स्मृतियों की धुंध में,

या मानसपटल पर विस्मृतियों की

धूल जमने लगे..

तो ढूंढ लोगे न तुम..?

 

जब मैं खो जाऊं

इस रुढ़िवादी दुनिया की भुलभुलैया में,

या दुनियादारी की जंजीरें जकड़ने लगे

और भयानक सपने डराने लगें..

तो ढूंढ लोगे न तुम..?

 

जब मैं खो जाऊं

मंजिल तक पहुंचने से पहले

या भटक जाऊं कहीं राह में

और चल पड़ूं किसी कंटीली पगडंडियों पर..

तो ढूंढ लोगे न तुम..?

 

जब मैं खो जाऊं

जिंदगी की धूप छांव में

सुख और दुःख की आंख-मिचौली में

या जब आंसू और मुस्कान एक सी लगें..

तो ढूंढ लोगे न तुम..?

 

तुम्हारे साथ चलते-चलते

जब कभी थक जाऊं,

या बहुत पीछे रह जाऊं

और सांसें उखड़ने लगे,

फिर शरीर जवाब देने लगे

और मैं खो जाऊं…

तो बोलो…..

ढूंढ लोगे न तुम..?

 

©वर्षा महानन्दा, बरगढ़, ओडिशा

Back to top button