लेखक की कलम से

जिनमें जमी हैं बूंदें पसीने की…

 

बेरोजगारी की कड़ी धूप तले

जब ढूंढता है इन्सान

रोजगारी की छांव

जब लगती है उसके जूते को

शहर महानगरों की धूल 

देश-दुनिया की खबरों से

रहता है वह बेखबर सा

पर नौकरी के पते से

भरी पड़ी रहती है उसकी जेब

शाम को लौटता है निराश सा

तो भोर चमकती है उसकी आँखों में

लेकर रोजगार का नया पता

नहीं जमने देता है वो

परत मायूसी की उन डिग्रियों पर

जिनमें जमी हैं बूंदें पसीने की

पिता ने कमर झुकायी है कमाते-कमाते

माँ ने जलाये हैं दिये आस्था के

देना चाहता है वो उन्हें छांव निश्चिंतता की

पाना चाहता है एक ऐसा ठिकाना

मन्जिल और स्वाभिमान को

मिले जहाँ एक नयी उँचाई

इसलिये रखता है वो अपने माथे

धूप के आँगारों का गमछा

और पैर समर्पित कर देता है तपती भू को।

©सरिता सैल, कारवार कर्नाटका

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