पापा ज्वाइन अस…
पिताओं ने दो जोड़ी शर्ट – पेंट में
संतुष्टि के साथ
औपचारिक जीवन का ताल- मेल बैठाया
एक पहना तो दूसरे को
तह बनाकर बिस्तर के नीचे रख दिया
और पूछने पर कॉन्फिडेंस से बोले
इससे प्रेस की जरुरत नहीं पड़ती
फटे मोज़े कभी शर्मिंदगी नहीं बन पाए
जबकि ऑफिस में
अक्सर कोई न कोई टोक ही देता
कि इतना पैसा बचाकर क्या करोगे यार ?
बच्चे तो सब सेटल होकर भूल ही जाएँगे
ये सारे सेक्रीफाइज व्यर्थ ही जाएँगे
चश्मे के नंबर से लेकर डाइबिटीज बढ़ने तक
धीरज बाँधे
बी पी डेढ़ सौ होने पर भी चुप्पी साधे
लोकल बसों की धक्का मुक्की खाते
ये पिता जो गुम हैं
संवेदनाओं के दायरे से
कठोर और बुत बने
घर के किसी नीरस कोने में पेपर हाथ में लिए
दुनिया की खबर रखते
लेकिन खुद को भुला बैठे
असमय इनके जाने पर
अनुकम्पा नियुक्ति पाने वाले वारिस
भौतिकता की दौड़ में आगे निकल चुके होते
पापा की वो दो जोड़ शर्ट- पेंट
डिस्कार्ड करने के लिए कोई बहाना ढूँढ ही लेते
लेकिन ऐसा क्यों ?
कि इनके रहते
इन्हें आवाज़ देना भूल गए – पापा ज्वाइन अस …
©दीप्ति पाण्डेय, भोपाल, मध्यप्रदेश