लेखक की कलम से

आजाद हूं मैं …

नीलगगन में

पंख फैलाए

उड़ती रहती हूं मैं

नाचती गाती

खिलखिलाती

शौर मचाती हूं मैं।

सुबह की

पहली किरण बन

सबको रोशन

करती हूं मैं

खेत खलिहानों में

फूलों सी

खिल उठती हूं मैं।

 

क्योंकि आजाद हूं मैं।।

 

जब चाहे

सजती संवरती

सुगंध सी महकती हूं मैं

कभी तितली,

कभी नदी और

कभी झरना

बन जाती हूं मैं।

घने जंगलों में

मोर बनकर

जी भरकर

श्वास लेती हूं मैं।

किसी से कोई

दुष्मनी नहीं,

अपने हैं सभी,

सबसे स्नेह करती हूं मैं।

 

क्योंकि आजाद हूं मैं।।

 

आजादी का इतिहास

रूलाता है मुझे

बार-बार है रुलाती

उनके लहू के गांथा

कैसे मैं भुलाती।

किस मिट्टी से

बने थे वो लोग

जो हस हस कर

अपना लहू बहाते थे।

जानते थे वो

सामने मृत्यु है

फिर भी आगे बढ़ते जाते थे।

वो लोग

किस मिट्टी से बने थे?

जानने की कोशिश करती हूं मैं

 

क्योंकि उनको याद करती हूं मैं।

 

काला पानी हो या

फांसी का फंदा

नाखून उखाड़ ले या

नोच ले आंखें

आखिरी सांस तक वो लड़ते थे

सोचकर

रुह कांप उठती है मेरी

इतना दर्द वह

कैसे सहते थे।

इनकी मां इन्हें

कौन सा दूध पिलाती थी?

जानना वहीं चाहती हूं मैं

 

क्योंकि उनको याद करती हूं मैं।

 

खुदिराम बोस हो या

मंगल पांडे,

भगत सिंह हो या

नेताजी सुभाष,

जाने-आनजाने हजारों वीरों के

खून से

लथपथ मिट्टी

अभी भी

याद उन्हें करती है।

याद करके

उनकी बहादुरी

दुष्मनों का ह्रदय भी कांप उठता है।

याद करके उनके बलिदान

आंख भर आती है

भीगे मन और नम आंखों से उनको सम्मान देती हूं मैं

 

क्योंकि उनको याद करती हूं मैं।

 

हमारी गुलामी की ज़ंजीरों को

तोड़ा है जिन्होंने

हम उनको नमन करते हैं

उनको शत शत नमन करते हैं।

हर रोज श्रद्धांजलि उन्हें अर्पित करती रहती हूं मैं।

 

क्यों कि उनको याद करती हूं मैं।।

 

 

©मनीषा कर बागची                          

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