लेखक की कलम से
प्रकृति …
मैं प्रकृति नव सभ्यता से
हार विनती कर रही
आदि युग के छोर से
सूत्रधार संग मै चल रही
किन्तु हर नियम भंग
सीमाओं का अतिक्रमण कर
मर्यादा की छाती बींध कर
दोहन मेरा तुमने किया
संतति मेरी जीव हो
जड़ हो या चेतन धरा
उच्चाकांक्षा के लिए
वध अनवरत तुमने किया
कोख से मेरे जो उपजे
तृण हो या हो पेड़ पौधे
दौड़ने की होड़ में
सीना मेरा छलनी किया
पेड़ हो या वृक्ष लता
धड़ से सिर जैसे कटा
विगत से वर्तमान पूछे
द्वार अनागत खड़ा
प्रश्न पूछेगा तुम्हीं से
तुम निरुत्तर मौन होगे
ठहर कर चिंतन करो
जीवित करो अभिचेतना
चक्र समय का न चलता
विपरीत दिशा में कभी
अभ्यर्थना मेरी सभी से
हो ऊर्घ्व अन्तश्चेतना।
©मधुश्री, मुंबई, महाराष्ट्र