लेखक की कलम से

बस इंसान रहने दो …

 

दिखावे के लिए, एक दिन का सम्मान, रहने दो

नहीं चाहिए देवी का दर्जा, बस इंसान रहने दो

 

न जकड़ो दक़ियानूसी बेड़ियों में, दम घुटता है

मेरी ख़्वाहिशों के, नाज़ुक पंखों में, जान रहने दो

 

बेटी, बीवी, बहू, माँ के किरदार निभाते थकी नहीं

मुझमें, मेरे ‘मैं’की भी, थोड़ी सी, पहचान रहने दो

 

निकलूँ स्कूल, काँलेज, दफतर के लिए, जब भी मैं,

सही सलामत घर लौटूँ, हाँ, ये इत्मिनान रहने दो

 

मायके को सात फेरे में ही पराए घर का नाम न दो

टूटूँ, बिखरूँ, तो समेट लोगे, माँ-पापा, ये भान रहने दो

 

अपने सपनों के ऊन से, तुम्हारे सपने बुनती रही

“तुम क्या जानो कैसे कमाते हैं, “ये ज्ञान रहने दो

 

झिड़कना, बिगड़ना, बारसा वो हाथ उठ जाना तुम्हारा,

बाज़ी पलट न जाए, सो रिश्तों का मान रहने दोl

 

वंश का अंश तो बेटी भी है, फिर अनचाही क्यों?

बेटे की आस में बार-बार, बेटी का बलिदान रहने दो

 

बंगले में, न दिल में ही, जगह मेरे लिए है जो, तो,

वृद्धाश्रम में ये, मासिक यात्रा का ध्यान रहने दो

नारी हूँ, ममत्व से, अपनत्व से दुनियां जीत सकती हूँ

सुनों, ये तानों, फ़िक्रों वाले, तीर कमान रहने दो

दिखावे के लिए, एक दिन का सम्मान,रहने दो

नहीं चाहिए देवी का दर्ज़ा, बस इंसान रहने दो

रहने दो बस रहने दो एक सीख ख़ुद को समझने दो

दिखावे के रिश्तों से रिस रही एहसासों अथरू को बहने दो

ना उम्मीदों की चादर ओढ़ कटघरे में खड़े रहने दो

हैसियत की परवाह करते इज़्ज़त की निलामी बंद दरवाजों में चीख उठी विश्व को सभ्यता ना की सच्चाई कहने दो …

 

© हर्षिता दावर, नई दिल्ली

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