लेखक की कलम से

समाचार की सुर्खियां बस रह जाती है घटनाएं…

सच में हम कहाँ आ गए हैं, इसका खुद का ही कोई आंकलन नहीं है, अखबार का कोई कोना उठाइये, खबरिया चैनलों के कोई भी समाचार सुनिये। अगर दिल में थोड़ी सी भी मानव सम्वेदना बची होगी तो लगेगा कि एक साथ हज़ारों चीटियां मन मस्तिष्क मे रेंग रही है।

कहीं कोई नवयौवना है, तो कहीं कोई कब्र में आधी लटकी पौढ़ा। खुद अब तो अपने घर में सुरक्षित हमारी दूध मुँही बच्चियां भी नहीं है। पता नहीं कब किस भेष में कोई चाचा, नाना, मामा या कोई अनजाना उसे अपनी कुंठा में ग्रसित कर ले।

अपने मातृत्व के पहले चरण में नित प्रभू से बिटिया की कामना करने वाली मैं, जब अपनी सरसरी निगाहें इन कृत्यों की खबर से गुजारती हूँ तो सच कहती हूँ दिल के किसी कोने से ये आवाज तो जरूर गूंजती है कि चलो अच्छा ही हुआ जो मैंने मादा नहीं जना। पर ताल ठोंक नहीं कपार पिट कहती हूँ, की हमारी घृणित मानसिकता से तो अब हमारे बालक भी अछूते नहीं है। रिपोर्ट्स कहते हैं कि बाल यौनचार आज भी शीर्षस्थ है।

गो वो दिन गये, जब हम बच्चों को सिखाते थे, की फलां तुम्हारे चाचा हैं, भइया है, काका है, और बच्चे भी अपने माता पिता से ज्यादा प्यार दुलार उनसे पाते थे। पर दुनिया तो हमें यहाँ ले आयी है कि हमें सिखाना पड़ रहा है, “गुड टच, बैड टच”।

मानसिकता तो हमारी ये हो गयी है कि अब हम मौतों पर भी रोटियां सेंकते है, चाहे वो रेड्डी का बलात्कार के बाद जल कर हो या उसके तथाकथित आरोपियों का पुलिसिया एनकाउंटर। मुझे याद है जब मेरे बड़े पा महाभारत का पाठ करते थे तो युद्ध के बाद का वर्णन कितना दुखांत होता था, वो महायुद्ध भी द्रौपदी के चिर हरण से शुरू हुई थी। पर जब पूरे कौरव और कुरु सेना जा अंत होता है तो सभी भावुक हो मर्मी हो जाते हैं और रक शून्य से सन्नाटा पसर जाता है। सच कहती हूँ मेरे अंदर का इंसान भी कही न कही मर गया है, क्योंकि मैं भी खुश हूं एक मौत से। आखिर क्यों न होऊं, इस समाज के इस सड़न में कही न कही शामिल और सहायक हम भी है, और अच्छा तो लगता ही अब जब सड़ चुके अंग को काट फेंक दिया जाता है, पर टिस तमाम जिंदगी रह जाती है।

©विजया एस कुमार

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