जीवन की संध्या बेला और पिघलता पाषाण …
पुस्तक समीक्षा
डॉ. उर्मिला प्रकाश मिश्र की प्रस्तुत काव्य कृति ‘पिघलता पाषाण’ की समीक्षा से पूर्व कविता क्या है यह जानना आवश्यक है।
कविता को परिभाषित करते हुए आचार्य शुक्ल ने कहा है-“जिस प्रकार आत्मा की मुक्तावस्था ज्ञानदशा कहलाती है, उसी प्रकार हृदय की मुक्तावस्था रसदशा कहलाती है। हृदय की इस मुक्ति की साधना के लिए मनुष्य की वाणी जो शब्द विधान करती आई है उसे कविता कहते हैं। ”
अब हम बात करेंगे डॉ. उर्मिला प्रकाश मिश्र की सद्ध प्रकाशित काव्य कृति के बारे में। ’पिघलता पाषाण’ में उर्मिला ने वैचारिक और रचनात्मक स्तर की कविताओं को बहुत ठहराव के साथ सृजित किया है। बढ़ती उम्र के साथ उनके स्वरों में परिवर्तन आने लगा। कुछ नए अनुभव अंतरात्मा को झकझोरने लगे, कुछ द्वन्द उत्पन्न होने लगे, स्मृतियाँ भूतकाल में ले जाने लगीं, उसी समय अवलम्ब की आवश्यकता महसूस होने लगी और चित्त ने नए विकल्पों की खोज शुरू कर दी। कवयित्रि के मस्तिष्क में कई रहस्य कौंधने लगे। उन्हें संसार मिथ्या प्रतीत होने लगा। वे स्वयं को इस मायाजाल से मुक्त कर शाश्वत ज्योति की ओर उन्मुख होना चाहती थीं। इसी उहापोह में भटकते हुए उनके हृदय में ऊर्जा का संचरण हुआ। डॉ.उर्मिला की रचनाओं में उनका आत्मविश्वास प्रतिध्वनित होता है।
इस नवीन काव्य कृति ‘पिघलता पाषाण’ संग्रह में ५९ कविताएँ हैं। जिसमें कुछ स्वर छायावाद और रहस्यवाद के भी मुखरित हैं। पुस्तक का आवरण अपने नाम की सार्थकता सिद्ध करता है।
पृष्ठ क्रमांक २२ से उद्धरित ‘जन्म-जन्म से मैला’ नामक कविता में उर्मिला ने आत्मनिवेदन के द्वारा परमपिता से मन- मस्तिष्क में जन्मों-जन्मों से फैली, मलिनता को करुणा की धार से उज्जवल करने का आग्रह किया है। पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं-
ये तन मेरा, ये तन तेरा
जन्मों-जन्मों से है मैला
न धोबी न उज्जवल नीर
कैसे निर्मल हो शरीर
जब भी घाट पर जाऊँ प्रभुवर
तुम बहा देना करुणा की धारा
उज्जवल कर देना तुम
यह तन मेरा, यह मन मेरा
जो जन्मों-जन्मों से है मैला।
आज जिधर देखो उधर नकारात्मक शक्तियाँ अदरक के पंजों के सामान फैलती दिखाई दे रही हैं। ऐसे समय में भी कवयित्री की सकारात्मक सोच, अंधेरे में भी रौशनी भर देती है। उनका मानना है, अंधेरे के बाद ही तो सुहानी सुबह आती है। पृष्ठ क्रमांक ३८ से ‘संध्या की शांति’ नामक कविता की पंक्तियाँ उद्धरित हैं-
संध्या ढलती रूप नहीं
नयी आशा की किरण प्रभा है
अवसाद का प्रतीक नहीं
नवज्योति की स्वर्णिम शिखा है
अंधेरी गलियों में डूबकर,
देती नित नूतन उजियारा
आज के दौर में इस भावभूमि की रचनाओं की सार्थकता और बढ़ जाती है।
शिशिर रितु के विदा होते ही प्राकृतिक परिदृश्य बदल जाता है। अनगिनत नए रंग सहसा मन मोहते प्रतीत होने लगते हैं। वसन्त रितु के आगमन का मनोहारी चित्र खींचते हुए कवयित्री रचती हैं-
शांत भाव से,
शिशिर विदा कर
हौले से आते तुम,
रितुराज वसन्त
सौन्दर्य भरा, मोहक आँचल,
वधु बन
ओढ़े नारंगी रंग
प्रकृति की हरियाली
द्राक्ष लता बन तुम,
अन्तस में ऐश्वर्य जगाते
वे लिखती है, वसंत तुम सौन्दर्य के नारंगी रंगों का आँचल ओढ़े, वधु बनकर हृदय में ऐश्वर्य जगाते हो।
नवीन प्रतीकों के माध्यम से उर्मिला मिश्रा ने अपनी कविताओं के शिल्प को सँवारा है।
जीवन की संध्या बेला में अपने जीवन संगी के बिछोह से व्याकुल मन अनायास कह उठता है-
मेरे नयन कुटीर के
पलक द्वार देहरी पर
ठहरी है एक आशा विकल
तुम कब आवोगे?
क्यों भ्रमित कर रहे हो
मुझको
क्यों है अँधियारा घोर?
यूँ ही भटकना होगा
या होगी कभी वो भोर?
इन परिस्थितियों में भी कवयित्री के मन में आशा रूपी दीप जल रहे हैं। प्रश्नवाचक शैली के साथ ही मेरे नयन कुटीर का प्रभावशाली प्रयोग प्रशंसनीय है।
मनुष्य एक संवेदनशील प्राणी है। वो अपने मन में उठते भावों को कभी ख़ुशी से तो कभी दुखी स्वर में अभिव्यक्त करता है। लेखिका भी इससे अछूती नहीं हैं। कहते हैं जब कोई बात बिगड़ने लगे तो उसे प्यार से सुलझा लेने से वो सुलझ जाती है। प्यार का हमारे जीवन में सर्वोपरि स्थान है। प्यार को कुछ इस तरह डॉ.उर्मिला प्रकाश मिश्र ने परिभाषित किया है-
मन का उल्हास
उत्सव है प्यार
अनुभव आनंद
स्रोत है प्यार
सागर-सा
गहरा है प्यार
मृदुल नि:शब्द
भाव है प्यार
विल्वपत्र-सा
शुद्ध है प्यार
निर्मल चित्त
पवित्र है प्यार
हर शृंगार का
फूल है प्यार
सत्य-शिव-सुंदर
है प्यार।
शिव को सुशोभित बिल्वपत्र को हमारे ऋषियों-मुनियों ने सबसे शुद्ध माना है। प्यार की शुद्धता की तुलना बिल्वपत्र से कर उर्मिला ने अपनी लेखन शैली की विशेषता को दर्शाते हुए धारदार बनाकर प्रस्तुत किया है। यहाँ वे यक़ीनन सबका ध्यानाकर्षित करने में सफल हुई हैं। यहाँ उनका लेखन सार्थकता को प्राप्त करता है।
आज जिस ‘मध्य प्रदेश हिन्दी लेखिका संघ’ के छॉंव तले हम मंच पाकर सृजनरत हैं, उसकी नींव डालने में महत्वपूर्ण योगदान उर्मिला का रहा है, जो प्रणम्य है। हर प्रकार से अनुभवशील एक वरिष्ठ कवयित्री की कृति की समीक्षा करना मेरे लिए किसी चुनौती से कम नहीं है।
ये तो सर्वविदित है कि एक समीक्षक को सभी आयामों से पुस्तक का अवलोकन करना चाहिए। मैंने भी अपने दायित्वों का निर्वहन कुशलता पूर्वक करने का प्रयास किया है। डॉ.उर्मिला ने इस काव्य संग्रह में अभिधा और लक्षणा शैली का आमतौर से प्रयोग किया है तो कहीं-कहीं पर चक्करदार भी। आपकी कविताओं का भावपक्ष बहुत सशक्त बन पड़ा है। कुछ जगहों पर टंकण त्रुटियाँ हैं, जिनका समाधान संभव है। आने वाले संग्रह में सामाजिक कुरीतियों और समसामयिक विषयों के समाधान पर भी आपकी लेखनी का पाठकों को इंतज़ार रहेगा।
‘पिघलता पाषाण’ काव्य संग्रह का साहित्य जगह में हृदय से स्वागत होगा। भविष्य में भी आप सदैव ऊर्जसित रहते हुए नवोन्मेश और नवाचार के द्वारा पाठकों को तृप्त करेंगी। आपके उज्जवल भविष्य की शुभाकांक्षिणी…..!
©डॉ. प्रीति प्रवीण खरे, भोपाल मध्य प्रदेश