लेखक की कलम से

क्या सरकारी उपक्रमों का निजीकरण भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए सही कदम है ? जानिए इसके लाभ और हानि …

आजकल लोगों में कई सरकारी संस्थानों का जो निजीकरण होने जा रहा है उसको लेकर कई चिंताएं हैं और मन में कई प्रश्न भी है आज उसी की चर्चा हम करने जा रहें हैं।

दरअसल निजीकरण करने का सरकार का प्रमुख उद्देश्य आर्थिक संकट में चल रहे सरकारी उपक्रमों को बेहतर व्यवस्था में लाना है।जिससे टैक्सपेयर्स के ऊपर इन व्हाइट एलिफेंट्स का जो बोझ है वह कुछ कम हो सके।और इसके साथ ही विनिवेश से मिली राशि को जनकल्याण के कार्यों पर खर्च किया जाएगा।किन्तु जैसे हर सिक्के के दो पहलू होते हैं उसी तरह निजीकरण के भी अपने फायदे तथा नुकसान है।

इसलिए सरकार को यह निर्णय बहुत ही सोच समझकर लेने की जरूरत है।

सरकारी उपक्रमों में सबसे बड़ी परेशानी है उसका लचर प्रबंधन या ढीला प्रबंधन। सही मायनों में कहा जाए तो ज्यादातर प्रबंधन आलसी हो चुका होता है, स्टाफ भी “आज करे, सो काल कर” विचार धारा पर चलने लगता है।प्रतिस्पर्धा यानी कांपटिटीवनेस शून्य होती है जिस कारण ग्रोथ भी नही होती है।वृद्धि तथा सेवा गुणवत्ता विचारणीय होती है।

उदाहरण के लिए आप बीएसएनएल के एकाधिकार वाले मार्केट को याद करें।सेवा बिल्कुल निकृष्ट थी, पैसे बहुत ज्यादा थे।जैसे ही निजी क्षेत्र दूरसंचार के क्षेत्र में उतरा तो न सिर्फ नए नए आयाम आए साथ ही सेवा का स्तर भी सुधर गया।आज की बात करें तो आज भी बीएसएनएल सबसे कम प्रतिस्पर्धी है, इसके टैरिफ दूसरों के अपेक्षा की कम प्रतिस्पर्धी होते हैं। और इसी की वजह से यह सरकारी उपक्रम नुकसान में चल रहा है।इस पर गवर्मेंट की लेनदारी होने के कारण,इस पर कोई कार्यवाही नहीं होती है और अब तो इसमें सुधार के भी कोई मार्ग दिखाई नही देते।

बस इतना ही नहीं संरक्षण के नाम पर टैक्स का एक अच्छा खासा हिस्सा केवल इसके क्रियान्वन पर व्यय  हो जाता है।

देखा जाए तो सरकार ज्यादातर अपने उपक्रमों से लाभ नही कमाती इसके विपरित सरकारी कर्मचारी  पर काफी खर्चा होता है।दूसरी तरफ प्राइवेट कम्पनी में पहले कम्पनी उन्नति करती है तथा बाद में उसके प्रमोटर्स।

एक तरफ ज्यादातर देखा गया है की सरकारी कर्मचारी अपने मनमाने ढंग से काम करता है। आम जनता को अपना छोटे से छोटा काम रिश्वत दे कर करवाना पड़ता है।लेकिन निजी संस्थाओं में

एंप्लॉयइज को अपने कार्य को हर हाल में प्राथमिकता देनी पड़ती है।जिससे ग्राहकों को बेहतर सुविधा मिलती है। सरकारी अफसरों को किसी बात का खौफ  नहीं होता क्योंकि उनकी किसी मालिक को प्रत्यक्ष रूप से जवाबदेही नहीं होती वहीं निजी संस्थानों में हर किसी कर्मचारी का अपना कार्य होता है और उसका उत्तरदायित्व भी तय होता है यदि वो अपना कार्य ठीक से नहीं करता तो उसे सदा अपनी नौकरी जाने का खौफ रहता है और सीधे तौर पर कंपनी का मालिक इस तरह के कर्मचारी को निकालने का अधिकार रखता है।

कुछ गवर्मेंट आर्गेनाइजेशन को प्राइवेट सेक्टर को बेचा  जा रहा है वे तय रूप से किसी न किसी वस्तु का प्रोडक्शन कर रहे हैं।उस प्रोडक्शन पर सरकार को टैक्स के रूप में इनकम होती है।

जब भी कोई सरकारी संस्था आय करती हैं तो उसका लाभ या लाभ का कुछ अंश सरकार के अकाउंट में जाता है जो जनता के लिये राहत देने वाला होता है क्योंकि तब यह आमजन पर टैक्स का बोझ कम करने वाला होता है।ऐसी स्थिति में टैक्सपेयर्स कम होने से आम जनता की खरीददारी की केपेसिटी बढती है, यानि वह दूसरी चीजें खरीदने में सक्षम हो जाता है जो इन्डायरेक्टली सरकार की इनकम बढाने के साथ ही देश की इकोनॉमी को भी बढावा देता है।

अब यह निजी हाथों में पहुंच जाएगा तो यह लाभ गवरमेंट को नहीं पहुंच पाएगा और जनता को टैक्स में कोई बेनिफिट नहीं मिलेगा।ऐसी स्तिथि में उसकी खरीदने की केपेसिटी उतनी नहीं बढ पाती है।

अर्थव्यवस्था मिश्रित होने में सबसे बड़ा एक लाभ यह है के कोई भी निजी क्षेत्र मनमानी कर के चीजों के दाम   नहीं बढा सकते।और इसीलिए चीजों के दाम नियंत्रित रहते हैं तथा उनकी अवेबिलिटी बनी रहती है।

निजीकरण या प्राइवेटाइजेशन से निजी संस्थाएँ सिर्फ प्रॉफिट मेकिंग में लग जाती है।निजी संस्थाएँ हमेशा आपस में कांपटीशन में लगी रहती है जिससे आम जनता मुश्किल में पड़ जाती है।इसके अलावा ज्यादातर निजी संस्थाएँ अपने एम्प्लॉइज को ठीक से सैलरी भी नहीं देती ,जितना देती है उसकी तुलना में कहीं गुना अधिक परिश्रम करवाती है।

प्राइवेट सेक्टर से बेरोजगारी भी बढ़ने की आशंका रहती है क्योंकि जब भी वैश्विक आर्थिक मंदी होती है तब छँटनी होनें की आशंकाएं चरम पर रहती है तथा इसके इतर सरकारी संस्थाओ पर सरकार दबाव बनाकर सामाजिक हित के कार्य करवा सकती है या प्रेरित कर सकती है।

यदि बात करें सार्वजनिक उपक्रमों की तो इनके अनेकों लाभ हैं इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता है,कि निजी क्षेत्र की तुलना में सार्वजनिक क्षेत्र के कहीं ज्यादा सामाजिक, आर्थिक लाभ हैं तथा भारत जैसे डेमोक्रेटिक कंट्री में पूर्ण निजीकरण बहुत मुश्किल हैं।

हर संस्था के अपने लाभ और हानि होते हैं ऐसे में यदि कोई।सरकारी संस्था करोड़ो के घाटे में है तो इस प्रकार के संस्थानों को सरकार को विशेष तौर पर ध्यान देकर उन्हें सही ढंग से अनुशासित कर कार्य करवाना होगा ताकि लोगों को उनका उचित लाभ भी मिल सके और उसमे कार्य कर रहे कर्मचारी ईमानदारी से काम भी करें और उनका भविष्य भी सुरक्षित रहे।

भारत जैसे विकासशील देश में “कंप्लीट प्राइवेटाइजेशन” लाभदायक सिद्ध हो ये मुश्किल है।अधिक से अधिक  60 पर्सेंट तक भी ठीक है।किंतु कुछ संस्थाएँ सरकार के अधीन रहना बहुत आवश्यक है जिससे देश की अर्थव्यवस्था का सही संतुलन बना रहे। निजीकरण से देश प्रगति कर सकता है पर इंडियन इकोनॉमी के लिए सरकार तथा निजी निवेश दोनो ही आवश्यक है।

 

©परिधि रघुवंशी, मुंबई

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