लेखक की कलम से

छोड़ जाएंगे ये जहां तन्हा …

✍ ■ नथमल शर्मा

दो दिन से बड़े परदे की चमक के पीछे का अंधेरा टीवी और हमारे स्मार्ट फोन की स्क्रीन पर चमक रहा है। एक चमकते सितारे सुशांत सिंह राजपूत ने खुद को अचानक ही गहरे अंधेरे में गुम कर दिया। संभावनाओं से भरे इस शख़्स ने सुनहरे ख़्वाब भी सजा रखे थे। चांद पर जाने की तमन्ना लिए सुशांत ने वहां अपने लिए प्लाट भी बुक कर दिया था। अब वो उस जहां में चल दिया जहां से लौट कर कोई नहीं आता।

फ्लैश…कैमरा …लाइट और एक्शन। कुछ इसी तरह के शब्दों के बीच जीते रहे कलाकार। न जाने कब किसी क़लमकार ने स्टार या सितारा लिख दिया। और वे सितारे बन कर चमकने लगे। कुछ तारे -सितारे टूटते रहे तो कुछ चमकते ही रहे। कुछ बिखरते रहे तो कुछ उन तालियों की गड़गड़ाहट के शोर में ही अपना सन्नाटा लिए जीते रहे। फ़िल्मी दुनिया ही क्यों हर दुनिया में ऐसे शोर और ऐसे सन्नाटे लिए जी रहे हैं लोग। सीमा पर जवान की बंदूकों का शोर और अपने कैंप में पसरा सन्नाटा, तो रिटायर्ड अफसरों को अपने अकेलेपन में याद आती नोट शीट्स पर चमकते अपने हस्ताक्षर।

राजनीति के बियाबां में अकेले रह गए राजनेता को अपने भाषणों पर बजती तालियां, जिंदाबाद का शोर। खेल, शिक्षा, रंगकर्म ,पत्रकारिता सहित जिंदगी के हर क्षेत्र में ऐसा ही है। अपना अभिनय करके रंगमंच से उतरना और पीछे बने ग्रीन रूम में मेकअप उतारते मंच की तेज रोशनी को याद करते हुए फ़िर उस गहरे अंधेरे में उतर जाना। न जाने कितने ही किरदार ऐसे हैं जो रील लाइफ़ में निभाते-निभाते रीयल लाइफ़ में खुद का असली चेहरा ही भूल जाते हैं। उस रंगमंच पर फ़िर कभी लौट ही नहीं पाते। उस एक पल की रोशनी से ही जिंदगी को रौशन करते रहते हैं। अपना किरदार निभाते हैं। बहुत कठिन होता है खुद से खुद को छिपा लेना। मंच पर लंबे-लंबे संवाद बोलने वाले, लच्छेदार भाषण देने वाले कभी खुद से बात नहीं कर पाते। खुद से बात करना बहुत कठिन जो होता है। हालांकि  वही तो जीना भी होता है।

आईने में रोज खुद को देख संवारते हम लोगों में से कितने हैं जो भीतर देख सके खुद को। यह सच है कि बहुत कठिन है जीना। रोज की हाड़-तोड़ मेहनत। कल क्या होगा, कैसे होगा कुछ पता नहीं फ़िर भी कुछ हैं कि जिए जाते हैं। खेतों में लहलहाती फसलें देख कर खुश होते हम सब उसके पीछे के श्रम को कम ही समझ पाते हैं। उस श्रम का उचित मूल्य भी नहीं दे पाते। यह उक्ति अब पुरानी हो चुकी कि गरीब और गरीब हो रहा है तो अमीर और ज्यादा अमीर। इस सच्चाई को बेहतर जानने के बाद भी अब इसका कोई असर नहीं होता हम पर।

अपने हिस्से की रोटियां छिनते और उससे तंदूरी बनते या कि अपनी प्यास छिनते और उससे उन लोगों की बिसलेरी बनते देख रहे हैं हम। एक टीस सी उठती है। कभी गहरी उदासी तो कभी मुट्ठियां भी तनती है। हम इसी तरह जिए जाते हैं। इसलिए कि हम साथ रहते हैं। अपने सुख दुःख साझा करते हैं। समझते हैं पड़ोसी की भूख। समझते हैं एक दूसरे के छोटे- छोटे सुख दुःख। सुख में शामिल होना और गमों में मुस्कुराना आता है हमें। यही तो है जो जिलाए रखता है।

बचपन में उस दोस्त का पेन छीन लेना, किताबें छुपा देना या किसी का कनखियों से देख लेना याद आता है जिंदगी भर। कभी किसी मोड़ पर मिल जाए तो अपनी किताबें वापस मांग कर ठहाके लगा लेना भी जिंदगी की कुछ सांसें बढ़ा जाता है। है, हममें से ज्यादातर के साथ ऐसा ही है इसलिए जिए जाते हैं हम। सुशांत सिंह के पास तो इससे भी बहुत ज्यादा था। बहुत- बहुत ज्यादा। यारों का यार भी था। कुछ बरस पहले ही भूकंप से संकट में आए अपने एक दोस्त को बहुत बड़ी रकम दी थी। कोविड-19 से निपटने के लिए भी सरकार को सवा करोड़ रूपये दान किए थे। चांद पर जाने के लिए जमीन खरीद ली थी।

समुद्र की थाह लेना चाहते थे और इस अंतरिक्ष की सैर भी करना चाहते थे सुशांत सिंह राजपूत। ये सब इच्छाएं लिख कर बताते रहे। ट्वीट करते रहे। पर एक दिन अचानक चले गए। क्यों किया ऐसा ? शायद कभी कोई नहीं जान पाएगा। निदा फाज़ली कहते थे – “एक आदमी के भीतर होते हैं कई आदमी”। अब बातें होती रहेंगी। कंगना राणावत कहती हैं कि इस फिल्म इंडस्ट्री के स्याह अंधेरे ने सुशांत को मार डाला। वह सुसाइड नहीं प्लान्ड मर्डर है। इसी तरह की कुछ बात रवीना टंडन ने भी कही हैं। एक बात और है जिसे सबको कहना जरूरी है कि खासकर युवा पीढ़ी इन सितारों की दीवानी होती है इसलिए तुम्हारा जीवन सिर्फ़ तुम्हारा ही कहां रह जाता है। इस सामाजिक दायित्व को निभाते हुए भी जीते हो तुम इसलिए इस तरह तो नहीं जाना था न।

होगा ऐसा कुछ। या नहीं होगा ऐसा कुछ भी। हम कहां कुछ या बहुत कुछ जान पाते हैं। हमारे आस-पास न जाने कितने ही ऐसे किरदार बिखरे पड़े हैं। इनसे मिल कहां पाते हैं हम। अवसाद क्यों बढ़ रहा है नहीं सोच पाते। शायद इसलिए कि अब दुख में न ही दुःखी हो पाते हैं और न ही सुख में खिलखिला पा रहे हैं। बस किरदार निभाए जा रहे हैं। फ़िर भी इन्हें जीते हुए देखते हैं। सुशांत सिंह राजपूत के बहाने बात है इसलिए फिल्मी दुनिया की बहुत तेज रोशनी के पीछे का बहुत गहरा अंधेरा भी दिखना ही है। घनी उदासी लिए जीते रहे सितारे ।बेहतरीन अदाकारा मीना कुमारी का दर्द तो उनकी शायरी में छलका ही आंखों से भी बयां करती रहीं।

प्यासे गुरूदत्त अवसाद से कहां निकल पाए थे। इस चमकती दुनिया के स्टार भगवान दादा जिनकी अपनी डांस स्टाइल थी। अमिताभ बच्चन जिनकी नकल करते रहे। उन भगवान दादा के पास सात मर्सिडीज कारें थी। प्रतिदिन के लिए अलग-अलग। वे अपने आखिरी दिनों में एक चाल में रहे और चुपचाप मर भी गए। भारतभूषण तो आखिरी दिनों में एक अपार्टमेंट के गैरेज में रहे। ए के हंगल के पास बाद के दिनों में इलाज़ के लिए पैसे नहीं थे। ललिता पवार पूणे के अपने फ्लैट में अकेले पन के साथ दुनिया से रूख़सत हुईं। हैलन के डांस के जलवे सबने देखे। पर हेलन को फिल्मी दुनिया में लाई कुक्कू। उस ज़माने की मशहूर डांसर।

कुक्कू के आखिरी दिन बहुत तकलीफ़ में बीते। ऐसे न जाने कितने नाम हैं और उनसे ज्यादा अनाम है लेकिन आज के सितारे तो बहुत समझदार हो गए हैं। धन कहां लगाना है जानते हैं। समझते हैं। किसी के पास कोई कमी नहीं। फ़िर भी ओम पुरी अपने फ़्लैट में अकेलेपन के साथ रहते हुए रुख़सत हो गए तो श्री देवी दूर परदेस में बाथ टब में डूब गई। कभी कोई नहीं जान पाएगा ये रहस्य। सुशांत सिंह का जाना भी कोई कैसे जान पाएगा। तम्हें  इस तरह नहीं जाना था। तुम सबके साथ इतने अकेले थे ? ऐसी तन्हाई लिए मीना कुमारी जीती रही, बेजोड़ अभिनय करती रहीं और अपनी तन्हाई को कागज पर उतारती रहीं। किसी रात ऐसे ही अकेले पन में लिखा –

चांद तन्हा है आसमां तन्हा

दिल मिला है कहां कहां तन्हा

राह देखा करेगा सदियों तक

छोड़ जाएंगे ये जहां तन्हा ।

* शीर्षक मीना कुमारी की शायरी से ही ।

–लेखक देशबंधु के पूर्व संपादक एवं वर्तमान में दैनिक इवनिंग टाइम्स के प्रधान संपादक हैं।

Back to top button