लेखक की कलम से
तमसो मा ज्योतिर्गमय …
अक्सर जब भी मिट्टी के दीये को
जलती हुई देखती हू्ँ तो जैसे
इसकी लौ से –
तमसो मा ज्योतिर्गमय
जिससे-
स्वतः ज्योतिर्मय हो जाता है हर कोना
जबकि –
ये मिट्टी के दीये बस मिट्टी ही तो है
इसका तेल खत्म, सारा खेल खत्म
किंतु –
अंतिम सांस तक तेल , बाती और दीया
जैसे –
हमें बहुत कुछ कह जाती है
तीनों अलग होकर भी
हमें संग-संग जीना सीखा जाती है
जैसे –
प्रेम के संग
सौहार्द के संग
एकता के संग
हां, अंतिम क्षण तक
एक -दूसरे के संग निःस्वार्थ
तम को हर
जग को ज्योतिर्मय करते हुए
अंततः,
विलीन हो जाती है संग -संग
सदा -सदा के लिये।
©सुप्रसन्ना झा, जोधपुर, राजस्थान