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मेहनती महिला किसान हाशिए पर

हेमलता म्हस्के

मुंबई। इन दिनों देश में कृषि और किसान आंदोलन चर्चा के केंद्र में है लेकिन इन चर्चाओं में महिला किसानों की बात हाशिए पर आ गई है। उनकी कोई सुधि भी नहीं लेता जबकि खेती किसानी में होने वाले हादसे और नुकसान की कीमत ज्यादातर महिला किसानों को ही चुकानी पड़ रही है। देश के बदलते हालात में खेती किसानी की जिम्मेदारी धीरे धीरे महिला किसानों पर ही बढ़ती जा रही है।

यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि देश में महिला किसानों की संख्या के प्रामाणिक आंकड़े भी नहीं है। उनकी अलग से ना कोई पहचान स्थापित की जा रही है और ना ही कोई श्रेणी तय की जा रही है। ऐसे में वे सरकारी सहयोग से भी वंचित हो रही हैं। किसान आंदोलन के दौरान कृषि कानूनों की बातें जोर शोर से की जा रही हैं । हकीकत यह है कि पिछले सत्तर सालों में किसानों को उनकी जमीन पर टिकाए रख कर उनके समग्र विकास के लिए कोई पहल नहीं की गई। अनेक किसान आंदोलन हुए। खेती में कई नवाचार हुए। हरित क्रांति हुई। कृषि के नाम पर कॉलेज युनिवर्सिटी खोले गए। देश अनाज के मामले में आत्मनिर्भर भी हो गया। लेकिन इतना कुछ होने का दुष्परिणाम यह है कि देश में आए दिन किसान आत्महत्या कर रहे हैं। उनकी संख्या लाखों को पार कर गई है। उनको अपने वजूद बचाने के लिए लंबे आंदोलन करने पड़ रहे हैं। वे आंदोलन नहीं करते तो वे आज चर्चा के केंद्र में भी नहीं आते। इनकी उपेक्षा का आलम यह है कि सरकार कृषि कानून बनाती है तो उनसे परामर्श लेना भी जरूरी नहीं समझती। अब जब वे आज आंदोलनरत हैं तब तो यह जरूरी हो जाता है कि हम देश की खेती किसानी की बातें समग्रता में करें। क्योंकि किसानों की हालत नहीं सुधरेगी तो गरीब भूखों मरेंगे और बेरोज़गारी भी सभी सीमा पार कर जाएगी।
इस क्रम में सबसे पहले महिला किसानों की दशा पर विचार करें। अभी जब किसान आंदोलन कर रहे हैं तब मौजूदा खेती किसानी का काम महिलाओं के कंधे पर अा गई है। वे घरेलू काम के साथ खेती की देखभाल कर रही हैं और समय निकाल कर उनके आंदोलनों में भी शरीक ही रही हैं। महिलाएं खेती किसानी में बरसों से अपना योगदान देती अाई हैं लेकिन उनको हम कम करके आंकते है। संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक खेती किसानी के क्षेत्र में 43 फीसद महिलाओं का योगदान होता है लेकिन खेती किसानी में योगदान देने वाली महिलाओं को किसान नहीं, मजदूर कहा जाता है। उनके साथ ऐसा भेदभाव क्यों? असल में पूरी सच्चाई को सामने नहीं लाया जा रहा है।

2011 की जनगणना के मुताबिक पूरे देश में छह करोड़ महिला किसान बताया जा रहा है,जबकि वास्तव में महिला किसानों की संख्या इससे कई गुना ज्यादा है। क्योंकि पिछले एक दो दशकों में ग्रामीण युवा खेती किसानी से कटते जा रहे हैं। उनका रुझान शहरों में जाकर नौकरी या व्यापार करने की ओर बढ़ता जा रहा है। ग्रामीण युवाओं के नौकरियों और व्यापार में चले जाने के कारण उनकी जगह पर खेती किसानी की जिम्मेदारी महिला किसानों के कंधों पर आती जा रही है। इसी के साथ जिन मध्यम और सीमांत किसान परिवार के पुरुष खेती छोड़ कर दूसरे काम धंधे से जुड़ते जा रहे हैं, उनकी जगह भी उनके परिवार की महिलाएं खेती को संभाल रही हैं। इनके अलावा आए दिन जो किसान आत्महत्या कर रहे हैं, उन पर आश्रित महिलाओं के कंधे पर भी खेती किसानी की जिम्मेदारी आती जा रही है। इतने योगदान के बावजूद उनका कोई सम्मान नहीं। उनको कोई प्रोत्साहन नहीं। महिला किसानों पर लगातार बढ़ती खेती किसानी की जिम्मेदारी के मद्देनजर उनको किसान का दर्जा देना तो दूर उनके योगदानों की चर्चा तक नहीं होती। उन महिला किसानों की भी नहीं, जिन्होंने अपने दम पर खेती किसानी के क्षेत्र में पुरुषों के मुकाबले बेहतर मुकाम हासिल किए हैं।
महिलाओं को किसान का दर्जा मिले इसके लिए एकता परिषद की महिला कार्यकर्ताओं ने राष्ट्रव्यापी जागरण यात्रा की। अनेक प्रदर्शन भी किए गए हैं। एकता परिषद अपने कार्य क्षेत्र में महिला किसानों को बढ़ावा देने के लिए विभिन्न परियोजनाओं का संचालन भी कर रहा है। इसके पहले बिहार में भूदान यज्ञ बोर्ड ने हजारों महिला किसानों को जमीन आवंटित कर उन्हें महिला किसान होने का अहसास कराया। बिहार भूदान यज्ञ बोर्ड के पूर्व अध्यक्ष कुमार शुभ मूर्ति के मुताबिक जब भूदान की जमीन पुरुषों के बजाय उनकी महिलाओं के नाम पर दिया जाने लगा तो सबसे पहले महिलाओं ने ही विरोध किया,क्योंकि वे देखती अाई हैं कि उनके परिवार की चल अचल सम्पत्ति स्त्रियों के नाम नहीं होती हैं। इसलिए उन्हें प्रारंभिक दौर में यह सही नहीं लगा फिर बाद में जब उनको समझ में आईं तो भूदान की जमीन अपने नाम पर लेने को राज़ी हुईं। गैर सरकारी स्तर से महिला किसानों के हित में जो पहल की जा रही है वह पर्याप्त नहीं है। इस क्रम में बिहार की एक महिला किसान की कोशिश भी काबिलेतारिफ है। यह ऐसी महिला किसान है जिन्होंने साईकिल से मीलों दूर तक जा जा कर ग्रामीण महिलाओं के बीच अलख जगाई। उनके प्रयास से बड़ी संख्या में महिलाएं किसान बनीं और खेती किसानी की जिम्मेदारियों का ठीक से निर्वाह कर रही हैं। इस महिला किसान को पद्मश्री से अलंकृत किया गया है।
किसान परिवारों में फसलों की बुआई से फसल काटने तक में अपनी भागीदारी निभा रही हैं। लेकिन उनके इस योगदान को कोई महत्व नहीं दिया जाता। आजादी के बाद से अब तक महिला किसान के नाम पर कोई योजना नहीं बनी। योजना तो दूर उनके वजूद की पहचान तक नहीं की गई। वे लगातार उपेक्षा की शिकार ही होती रही। अभी हाल में केंद्र सरकार ने महिला किसान सशक्तिकरण योजना की शुरुआत की है। योजना के तहत 24 राज्यों और केंद्र प्रशासित प्रदेशों में 84 परियोजनाओं के लिए 847 करोड़ रुपए आवंटित किए गए हैं। देश में खेती किसानी से जुड़ी महिलाओं को सशक्त बनाने के लिए शुरू की गई इस योजना के तहत महिला किसानों खेती के लिए कर्ज के साथ खाद और सब्सिडी देने का प्रावधान है। लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण है सरकार की इस योजना के बारे में ज्यादातर महिलाओं को जानकारी ही नहीं है।

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