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किसपे उतरती कविता…

कौन ये जानता, किस किस पे
उतरती कविता?

धरा पे,सूर्य पे,मौसम पे,
फूल बारिश पर,
झूम लहरा के सबा बनके
उतरती कविता।

चांद तारों से
आसमां की सजावट बनकर,
चांदनी रात मे है
दिल पे उतरती कविता।

कवि की कल्पना है
कब कहाँ ठहर जाए,
ठिकाना ढूंढ यायावर सी
ठहरती कविता।

है आसमानी सफ़र
कब किधर ये मुड़ जाए,
उमड़-घुमड़ के बादलों से
उतरती कविता।

कभी ईश्वर तो कभी गाड ,
और अल्लाह कभी,
किसी भी नाम से है
दिल पे उतरती कविता।

चांद तारों से भरी रोशनी
हवा बनकर,
धूप बिजली की कड़क
घटा और सबा बनकर

किसी सुनसान से जंगल की
वो अदा बनकर
कभी समंदर तो कभी
सहनशील सी धरा बनकर

रंगीन कहकशाँ
बादल की वो सदा बनकर
फलों की अन्नों की
सोंधी सी वो मृदा बनकर ,

कौन जाने भला ये
किस पे उतरती कविता।

बहारें बागों की
कलियों की शर्म तू बनती
मासूम सी रोती हुई
शबनम का मर्म तू बनती

आती हुई पुरवाई जो
मस्ती से हो भरी
हर सुबह हर इक शाम
जो खुशबू से हो सनी

बुलबुल की चहक तू है
तो हीरे की चमक तू
संगीत तू और गीत तू
झांझर की झमक तू

कौन जाने भला
है किस पे उतरती कविता।।

प्रेम पर आशा पर
निष्ठा पे और धोखे पे
दुनिया के सारे दर्द और
पीड़ा के झरोखे पे,

खुशियों पे और मुस्कान पे,
बीमार,दवा पे,
नन्हों की शरारत पे और
माता की दुआ पे,

पाखंड पे, पूजा पे,
और अच्छे या बुरे पे,
सीने मे धड़कते हुए
खंज़र पे छुरे पे।

कौन जाने है भला
किस पे उतरती कविता।।

राम पर कृष्ण पर
अल्लाह पे ख़ुदा पे,
कबीर पे फ़रीद पे
नानक की अदा पे

इंजील पर,कुरआन पे
दाऊद, मूसा पे
तौरेत पे ज़बूर पे
मुहम्मद पे ईसा पे

जाने क्या सोचकर
है इन पे उतरती कविता।

हृदय की पीर पर
आशा और प्रेम पर
कौन रोकेगा इसे
जब भी उतरती कविता..

©दिलबाग राज, बिल्हा, छत्तीसगढ़

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