अनकही व्यथा …
आज मैने कुछ ऐसा देखा
जो ह्रदय से समझो तो शायद
पढ़ना सार्थक हो पाए—-
रसोई की खिड़की से बाहर देखा
एक पक्षी खिड़की के काँच को अपनी चोंच से प्रहार कर मुझे बुलाने की कोशिश कर रहा था।
तभी अचानक एक छोटी सुन्दर सी रंग-बिरंगी चिड़िया आकर अपनी बोली मे कुछ बोलने लगी।
मै निशब्द वहाँ बड़ी उन्हे निहार रही थी।
मुझे लगा उनकी आँखों मे हजारों सवाल थे।
वो कह रहे हो
हे मानव
जंगल समाप्त करते करते हमारे आवास छीन लिए
क्यो तुमने घरों के आँगन भी ना रखे।
रहते आलीशान घरों मे चारो ओर बंद होकर
अब तुम मुंडेर पर दाना पानी डालना भी भूल गये।
मै उलझनों के सवालो मे उलझनें लगी।
मेरी दादी की बाते मस्तिष्क मे कौतूहल मचाने लगी
कितने प्यारे थे वो दिन जब हमे सिखाया जाता था।
हर दिन भोजन जब करो,प्रथम सिमरो ईश्वर नाम
पहला निवाला पक्षी को करो अर्पण ईश्वर सँवारे बिगड़े काम।
माँ पहली रोटी गाय की,
दूसरी रोटी कुत्ते की
जरूर बनाती थी।
हम छतों पर कबूतरों को बाजरा डाल कर बहुत खुशी मनाया करते थे।
मेरे बचपन का कच्चा घर याद आने लगा था।
अनार के पेड पर अनगिनत चिडियो की आवाजों का शोर—–
मुझे खींच कर ले चला मेरे बचपन की स्मृतियों की ओर,
छत पर बंदरों के आने से उन्हे भूने चने डालकर
मेरी दादी
हाथ जोडना नही भूलती थी।
आँगन मे चिडा-चिड़िया का टकराव , दाना चुगना
अपनी चोंच से नन्हे शावकों का भरण-पोषण करना
कितना मनमोहक था।
आज की पीढ़ी की व्यस्तता, एकल परिवारों ने कुछ आंनदमय क्षणों की अनुभूति को महसूस नही किया।
पशु-पक्षियों, पशुओं की बोली समझ ना सकूं।
परंतु उनकी दुख भरी व्यथा को महसूस कर रही हूँ।
एक बार फिर से आने वाली पीढ़ी को भी प्रकृति के
संदेश समझा पाती।
काश प्रकृति के डाकियो की डाक बाँचने की फुरसत निकाल कर इनकी संवेदनाओ को समझते ।
मन के भावो मे करूणा है।
पराया दर्द भी अपना कर प्रकृति से बिखरे रिश्ते
पुनः बन जाऐगे।
हर दिन दो पेड लगा कर धरा को हरियाली से सजायेगे।
वसुंधरा की सौम्यता से भगवान के डाकिये जरूर
खिलखिलायेगे।
©आकांक्षा रूपा चचरा, कटक, ओडिसा