लेखक की कलम से

वो शामें …

 

यूँ ही कभी बेमतलब हंस

लिया करता था मन

कि ज़िंदगी होने का

बना रहे भ्रम

 

थोड़ा और अधिक चमक

भर लेती आँखे अपने में

झिलमिल करते आंसू

हो जाए ओझल

 

निकल पड़ती मंदिर की

तरफ जाते सुनसान

रास्ते पर अकेले कि

थोड़ा और हो जाऊँ आकेली

शाम के इस उदास समय में

 

दिसंबर की धुंध में लिपटी

वो शामें, बीच से गुजरती हुई

पी जाती वो सारी नमी इसलिए कि

जी लूँ थोड़ा और इस समय को

 

 

कुछ भी नहीं बचता यहाँ

नहीं होगा संभव दोबारा

इस पुलिया पर टेक लगा कर

कुछ देर ठहरना, महसूस करना

दूर तक जाती सड़क के

भीतर पसरे सन्नाटे को  ….

 

अचानक बेमौसम बरस पड़े

बादल… धुल गया सब कुछ

दिखाई देने लगा साफ साफ

लैम्पपोस्ट…..

 

अब जो था वहाँ  .. वो थी

 

रोशनी …..मेरी परछाईं

और…….

बहती     नदी

इक मेरे दुख की….

 

©सीमा गुप्ता, पंचकूला, हरियाणा                                                                 

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