लेखक की कलम से

बस कब तक होगा चीर हरण …

आज फिर आर्यपुत्री की चीख को दफन कर दी गई,

जिस्म नोच कर द्रौपदी का जिह्वा काट उसे, मूक बना दी गई,

आखिर कब सरकारों के कानों तक गुंजेगी दर्द भरी गुडी़या की चीखें,

आज फिर प्यार को चिखों में दफन कर दी गई,

 

आज प्रेम की धार बहाने वाली कलम से, क्रोध की ज्वाला फुटी,

आज फिर किसी बालकवि का रक्तिम आखों से वतन जलते हुई देखी गई,

 

दुशासन बाल खिंचता, संस्कृती के संस्कार को मिटाता,

चिड़िया उड़ कर पहुंच न जाए अपने घोंसला तक, उसकी रीड़ की हड्डी तोड़ दी गई।

 

अपनी टीआरपी बढ़ाने के लिए चैनलों ने दर्द भरी खबरों को व्यवसाय बना दी,

आज फिर एक पिता को पुत्री के चले जाने की समाचार दिखा-दिखाकर शर्मिंदगी कारण फांसी लगा दी गई,

 

पांडवों के सामने हुई द्रौपदी निलाम, दास बन सभी ने मूक भाषा अपना ली,

आज फिर महजबीं दुर्योधन सरकार ने दास पांडव कन्याओं की चिरहरण पर चुप्पी शाध दी गई,

 

उनकी राजमहलों तक अभी नहीं गुंजी कन्याओं की गुंज,

गुंज गुंजी भी तो उसे अनसुनी करार कर दी गई,

 

दर-दर की ठोकरे खाकर पिता पहुंचा था न्यायपालिका,

आज फिर सिपाहियों ने केश दर्ज करने के बहाने,

बेबस पिता की जुबा़नी, अपनी बेटी की चिरहरण सुनी गई।

 

ऐसी असंख्य घटनाओं की वर्षों तक याचिका होती रही, कोई सुनवाई नहीं हुई,

मिली सजा कितनो को अब तक यह तो संख्या शून्य पर रह गई,

 

कुछ कालांतर के बाद सड़क पर नहीं रहा अब आक्रोश,

जनता का धरना अब कफ़न बन गई,

आज फिर से उसी घटना को दुहराई गई।

 

 

©लक्ष्मीकांत, पटना, बिहार

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