लेखक की कलम से
यादों की परछाइयां …
हमेशा कहीं अटक जाती हूँ
अपने ही दायरे में सिमट जाती हूँ
शीशे की भाप सी मैं
हाथों की तपिश से पिघल जाती हूँ
यादों की परछाइयां और सोच पर पाबंदियां
बाहर शोर है अन्दर कोहराम की आतिशबाजियां
जिन्दगी की राह में सैकङों अङचने
जो थे कभी अपने, वो ही ज्यादा हुये बैगाने
पिछला सफर अधूरा, कब होगा पूरा
अभी रास्ता लम्बा है और ठिकाना अनजाना
पैमाइशो का दौर है, मुद्दतों का बांध है
कसक अनजानी सी, सागर के साहिल सी
गुमराह हुई जाती हूँ
सोच नहीं पाती हूँ
काश एसा महरम मिल जाये
लगाऊं तो दिल को राहत मिल जाये…
©मोनिका जैन, मुंबई