लेखक की कलम से

एक मुद्दत के बाद ….

 

एक मुद्दत के बाद जरा,

मैंने खुद को खुद में ढूंढा,

पर मैं कहीं नहीं थी,

मैं कहीं खो गई थी,

पता नहीं कहां?

 

एक मुद्दत के बाद मैंने,

जिंदगी का कैनवास,

उठाया, झाड़ा, पोछा, साफ किया,

उस पर कोई अक्स नहीं उभर पाया था,

ना ही कोई लकीर,

क्योंकि मेरे रंगों की डिबिया,

कहीं खो गई थी,

मैं अपने ब्रश भी कहीं रखकर भूल आई थी,

पता नहीं कहां?

 

एक मुद्दत के बाद जरा,

मैंने खुद को खुद में ढूंढा,

पर मैं कहीं नहीं थी,

मैं कहीं खो गई थी,

पता नहीं कहां?

 

आज मैंने बड़े दिनों के बाद,

उम्र भर के वरको को देखा,

सिर्फ कोरे सादा कागज़ो के सिवा कुछ ना था,

ना ही कोई हर्फ लिखे गए थे,

ना ही कोई लकीर,

क्योंकि मेरी स्याही की दवात,

कहीं खो गई थी,

मैं अपनी कलम कहीं रखकर भूल आई थी,

पता नहीं कहां?

 

एक मुद्दत के बाद जरा,

मैंने खुद को खुद में ढूंढा,

पर मैं कहीं नहीं थी,

मैं कहीं खो गई थी,

पता नहीं कहां?

 

एक मुद्दत के बाद मैंने,

अपने मांझी में झांक कर देखा,

दूर तक टेढ़े-मेढ़े रास्ते थे,

दूर तक दुख और सुख के साए थे,

तमाम उम्र मैंने खुद को भुला दिया था,

सबके सुख और आराम के लिए,

पर चेहरे और दिल पर,

सकून की कोई लकीर तक ना थी,

क्योंकि मैंने खुद को कहीं भुला दिया था,

अपने सुखों की गठरी को,

कहीं रखकर भूल आई थी,

पता नहीं कहां?

 

एक मुद्दत के बाद जरा,

मैंने खुद को खुद में ढूंढा,

पर मैं कहीं नहीं थी,

मैं कहीं खो गई थी,

पता नहीं कहां?

 

एक मुद्दत के बाद आज जब,

मैंने खुद को आईने में जरा निहारा तो देखा,

उम्र भर की थकान और चेहरे पर उभरी हुई लकीरे,

उदास आंखें, पपड़ाए होंठ,

अपनी चंचलता और ताज़गी

कहीं खो गई थी,

पता नहीं कहां?

 

एक मुद्दत के बाद जरा,

मैंने खुद को खुद में ढूंढा,

पर मैं कहीं नहीं थी,

मैं कहीं खो गई थी,

पता नहीं कहां?

 

©लक्ष्मी कल्याण डमाना, छतरपुर, नई दिल्ली 

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