लेखक की कलम से
कठपुतली …
हाँ, मैं कठपुतली,
सौंप चुकी डोर तुझे प्रियतम,
झूमती,नाचती,
तेरे इशारे पर,
जब कहता कुछ रो ले तू,
मैं तो बस रो लेती हूँ।
बसाए मन मे तुझे ही प्रियतम,
मुस्कुरा मन मे लेती हूँ।
इस संसार के रंगमंच पर,
हर जीव कठपुतली है,
डोर है ईश्वर के हाथ मे,
प्रियतम बस वो ही है,
वो जनता हमे नाचना,
अपने ही हाथों से,
हर पल बस सिखाना,
कभी पुष्प कभी काँटो से,
सौप कर डोर जरा,
आज सब मुस्काते है,
फिर देखना,सुख हो या दुख,
कितना हमे भाते है,
दुख की हर पगडंडी पर,
चलना सीख जाते है,
सुख तो फिर हर पल
उत्सव का भाव सिखाते है,
क्यो उलझे फिर दुख सुख में फिर.
जब डोर प्रियतम के हाथों है,
सम्हालता है वो हर पल,
जब शूलों से पथ भी आते है।।
©अरुणिमा बहादुर खरे, प्रयागराज, यूपी