लेखक की कलम से

सऊर नहीं है बहू …

अपना घर,

प्यार की भरी वो मटकियां, वो लड़कियां,

ब्याह कर भेजी गयीं ‘अपनेघर’ बडे़ अरमानों के साथ,

पर अपना घर सपना ही रहा, रहा हमेशा वो ससुराल ही,

ससुराल के नियम पालने होंगे, हमेशा दी गयी ताकीद उसे,

कहाँ, किससे, कैसे बात करनी है,

क्या पहनना है, क्या खाना है,

समझा कर बार- बार रटाया गया उसे,

तन मन धन लगा सेवा करो बेटीसबकी,

हम सब तुम्हारे हैं,

जतलाया गया उसे, अपना समझ बहू बन चुकी बेटी ने जब जतलाया अधिकार,

और रहना चाहा स्वेच्छानुसार,

टेढ़ी आंखों और कर्कश आवाज़ ने तोड़ा भ्रम,

“सऊर नहीं है बहू ये तुम्हारा घर नहीं ससुराल है, ”

यहाँ के कदर कायदे तो पालने ही होंगे,

कभी थकान से चूर शरीर ने चाहा कुछ देर और विश्राम,

या कभी सखियों संग कुछ और हंसी-ठिठोली,

चीखती हुयी आवाज़ सुन कांपते शरीर से उठ बैठीं,

यहाँ मनमर्जी नहीं चलेगी कि जब चाहो तब तक पड़े रहो,

“सऊर नहीं है बहू “? ????

 

©विभा मित्तल, हाथरस उत्तरप्रदेश            

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