लेखक की कलम से

काश…

काश कि नहीं ही होता, कोई काश,

काश कि सारे काशों की, बिछ जाती लाश।

 

कितने सपनों, अरमानों, दीवानों का क़ातिल,

क़त्ल होता कभी खुद भी, मक़तूल हो जाता ये काश।

 

उसे कुछ तो कहना था, यूं न चुप रहना था,

कुसूर भला था ही क्या, किसको नहीं बेहतर की तलाश।

 

साथ खड़े थे सब, कितनी दुआएं, तोहफों के साथ,

पर दिल से जिसे क़ुबूला उसने, वो था महज़ काश।

 

रंग बिरंगी रौशनियों में, महकती खुशबुओं के साथ,

सजाया जिसे ताज़िए-सा, विदा हुई वो, जैसे लाश।

 

दरवाज़े, दीवारें, ताले, चाबी, दहलीज़ ओ दराज़,

बाजाहिर थे चुप, यूं तो सारे,

लबों पर सबके, ठहर गया था मगर एक काश!

 

      ©परीक्षित जायसवाल, बिलासपुर, छत्तीसगढ़         

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