लेखक की कलम से

नाक …

कभी चश्मा इस पर चढ़ाते है…
कभी ग़ुस्सा इस पर बैठाते है …
अगर कट जाये कहीं तो…
झट से गिर जाते है…..
अगर उठ जाए कहीं तो….
आसमान भी छू आते है…
यह नाक का ही खेल है साहब….
जिस पर सब इतराते हैं…

   ©मणिका शर्मा, शिवपुरी   

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