लेखक की कलम से

नजाकत …

 

वक्त की नज़ाकत को वो सलाम करते हैं

अपनी नफासत को वो सरेआम करते हैं

सराफत मरे या जिये उन्हें इससे क्या

मजलूमों की विरासत को वो तमाम करते हैं

 

रियासत रहे ना रहे कितना गुमान करते हैं

लब्बोलुआब का ही एहतराम करते हैं

कायम था कायम रहेगी इंसानियत यहां

ये इलहाम है ‘लता’ इसे यहीं कयाम करते हैं!

 

©लता प्रासर, पटना, बिहार                                                              

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