लेखक की कलम से

स्त्री होना…

 

कितने पतझर से निकल आई है

फिर भी गुनगुना लेती है अभी…

 

देर से सोने और

जल्दी जागने का शौक नहीं है उसे,

न दिन भर उनींदी सी विचरने का,

तुम देख नहीं पाते हो

दिन भर मुस्कुराते चेहरे के पीछे

घिरती परछाइयाँ

जिनसे उलझती है वह

रात की स्याही में

कि जब गहरी नींद में

सो रही होती है दुनिया

वह खुद में खुद को तलाशती है।

पूछती है अपने आप से

क्या चाहती है?

कौन सी भटकन है जो

तलाशती है सुकून

 गहन निविड़ अंधकार में?

शायद मन का कोलतार

स्याह अंधेरे में रिस,

कर जाता है हल्का।

उस कोलतार में

मन के टुकड़े बिखेर,

बाँध लेती है सेतु

तारों के प्रांगण तक,

तारों के पास उत्तर नहीं हैं

उसके किसी भी प्रश्न का

किन्तु उनकी शीतलता बूँद बूँद

उतर जाती है अंतस में

तब कहीं वह कह पाती है

कि प्रेम के मीठे सोते में कितनी

खार है।

 

वह जागती है बेकल, कि

निकल नहीं पाती सिद्धार्थ की तरह…

छोड़ नहीं पाती कुछ भी

कि उसको बस आता है समेटना।

पतझर में पत्तों के गिरने का स्वर

छील देता है उसका अन्तर्मन

सूखे पत्तों को भी सहेजती,

बटोर कर रखना चाहती है वह।

अपने मन की उर्वरता को,

उसमें फूट रही असंख्य कोंपलों को,

बाँध लेती है सायास कि

उसके मन का पोषण

नहीं किसी के पास

फिर भी करती रहती है आस।

रोक लेती है आँसुओं को भीतर ही

कि टूट न पाएं तटबन्ध।

जान पाती है, पर समझ नहीं पाती

क्यों सृष्टि ने रचा ही यूँ,

कि

स्त्री होना बहुत सा देना है,

स्त्री होना, भरी बरसात में

प्यासा रह जाना है।

स्त्री होना रीत जाने पर भी मुस्कुराना है।

स्त्री होना पर्वत सा होकर भी

कमजोर कहलाना है

स्त्री होना अपनी हर शक्ति

को पुरुष से अंकवाना है

स्त्री होना पुरुष के पैमाने पर

खड़ा हो जाना है,

स्त्री होना शिव हो जाना है!

शिव ने हालाहल पिया था एक बार

स्त्री को हर पड़ाव पर

कालकूट आत्मसात कर मुस्कुराना है!

 

©भावना सक्सैना, फरीदाबाद, हरियाणा

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