लेखक की कलम से

नैनों की भाषा ….

“होली खेले रघुवीरा अवध में होली खेले रघुवीरा” इस गीत से मिश्रित वातावरण रंगों से युक्त आनंद में, ऐसा अनुभूत हो रहा था जैसे ये पूरी धरती  इंद्रधनुषी रंगों के तले जीवन यापन कर रहे हैं।समग्र परिवेश में कौतूहल और आनंद का समावेश और मैं, मेरी सखी सुजान के घर होली का पर्व मनाने आई।

उसके दोनों लड़के मेरी बेटी से वकालत की रहस्यमई दुनिया  की उलझी गुत्थी को सुलझाने में लगे थे। मेरे पति राजनीति की उठापटक में दिमागी कसरत कर रहे थे। बंगाल में ममता सरकार एवं बीजेपी के मध्य महासंग्राम की मानो पटकथा सुना रहे। हम दोनों सखियां बातों ही बातों में अतीत की परतें को मानो टटोलने लगे।

हमारा ट्यूशन क्लास सुजान के घर में ही लगता था। उसके पिता अंग्रेजी के अध्यापक थे और घर के आसपास जितने भी छात्र-छात्रा थे, वे उनके घर कोचिंग लेने जाते थे।उसी में एक लड़का जो उसके घर पढ़ने आता था, घनानंद। ना जाने कब मन ही मन वह सुजान से प्यार करने लगा। 90 का दौर न मोबाइल, न फोन ही हुआ करता धा।आंखों ही आंखों में कब मन की बात की कहासुनी हो गई।कुछ पता ही नहीं चला। वह लव अट फर्स्ट साइट वाली बात, अनकंडीशनल लव हो चुका। आंखों ही आंखों में इशारा जीवन का सहारा बन चुका था।प्यार कब परवान चढ़ने लगा, पता ही ना चला। गर्ल्स स्कूल में यह बात जंगल में आग की लपटों की तरह फैल गई। ऐसा हो भी क्यों ना बनाएं, घनानंद रोज स्कूल गेट पर खड़ा मौन भाषा में अपने सच्चे प्रेम गाथा को कहता।इजहार ए मोहब्बत करता रहता था।

सर के कान तक बात पहुंची और उन्होंने ट्यूशन क्लास बंद करने का निर्णय लिया।उसे एकदम घर आने से मना कर दिया। तबसे घनानंद वहां पांव तक नहीं रखाजबकि सुजान के घर के सामने ही उसके परम मित्र का घर था। पर वह सर की उम्मीद पर खरा उतरना चाहता था।किन्तु वह होली के दिन आता था। रंगों से सराबोर हो ताकि उसे कोई पहचान तक नहीं पाए।उसी अवस्था में रंगरेज बनकर आता था। अपने मित्रों की टोली संग। उसकी दो आंखों से सुजान उस टोली में भी पहचान लेती थी। जो नैनों की भाषा में उड़ेल देता था मौन प्रेम। आज भी होली का दिन ही है।उसकी दो आंखें सजल होउठती मनः पटल पर चलचित्र की तरह।जो न जाने कौन से प्यार को बयां करना चाहता था। आज भी रहस्य ही रह गया…

 

©अल्पना सिंह, शिक्षिका, कोलकाता                          

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